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द्वितीय परिच्छेद
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है, क्योंकि जो जो वस्तु का स्त्रभाव है, सो सो सर्व अनादि काल से है । जेकर वस्तु में छापना अपना स्वभाव न होवेगा, तब तो कोई भी वस्तु सद्रूप न रहेगी, किंतु सर्व वस्तु शशशृंगवत् असत् हो जायगी । अरु जो पृथिवी, आकाश, सूर्य, चंद्रमा, आदि पदार्थ प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं; सो इसी तरें अनादि रूप से सिद्ध हैं । अरु पृथ्वी पर जो जो रचना दीखती है, सो सव प्रवाह से ऐसे ही चली आती है, अरु जो जो जगत्के नियम हैं, वे सर्व इन उक्त पांचों निमित्तों के बिना नहीं हो सकते । इस वास्ते सर्व पदार्थ अपने अपने नियम में हैं। जेकर तुम द्रव्य की शक्ति को ईश्वर मान लोगे, तब तो हमारी कुछ हानि नहीं; क्यों कि हम द्रव्य की अनादि शक्ति का ही नाम ईश्वर रख लेवेंगे । अरु यदि तुम द्रव्य की अनादि शक्ति को ईश्वर मान लोगे, तव तो तुमारा हमारा विवाद हो दूर हो जावेगा । तथा तुम ने जो यह कहा है कि जड में यथावत् मिलने की शक्ति नहीं है, सो तुमारा यह कहना भी मिथ्या है; क्यों कि जगत् में अनेक तरें के जड पदार्थ अपने आप ही इन पूर्वोक्त पांच निमित्तों से आपस में मिल जाते हैं । जैसे सूर्य की किरणें जब बादलों में पड़ती हैं, तब इन्द्रधनुष वन जाता है । तथा संध्या, पांच वर्ण के वादलों की वनी हुई घटा, चन्द्रमा और सूर्य के गिरद कुण्डल, श्राकाश में पवनों के मिलने से जल, और अग्नि आदि पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं । तथा