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जैनतत्त्वादर्श सिद्धान्तीः-इस अनादि संसार की नियति रूप जो मर्यादा है, वो कदापि अन्यथा नहीं होती, जे कर हो जावे, तो संसार में जितने जीव जन्म लेते हैं, सो सर्व, स्त्रियों वा पुरुषों के ही रूप से क्यों नहीं उत्पन्न होते ? जेकर कहोगे कि उनके जैसे जैसे कर्म थे, वैसा वैसा ही उन को फल मिला है, इस वास्ते एक स्त्री आदिक स्वरूप से उत्पन्न नहीं होते ? तब हम पूछते हैं, कि सर्व जीवों ने स्त्री होने के वा पुरुष होने के न्यारे न्यारे कर्म क्यों करे ? एक ही सरीखे कर्म क्यों नहीं करे ? जेकर कहो कि संसार में यही सनातन रीति है, कि सर्व जीव एक सरीखे कर्म कदापि नहीं करते । तबतो परमाणुओं में भी यही सनातन स्वभाव है, कि सब एकठे नहीं होते, तथा एक एक होकर बिखर भी नहीं जाते । तथा यह तुमारा ईश्वर जो जगत् को रचता है, सो तुमारे कहने के अनुसार आगे अनन्त बार सृष्टियों को रच चुका है, अरु एक एक जीव को अशुभ कर्मों का फल भी अनंत वार दे चुका है, तो भी वो जीव आज ताई पाप करते ही चले जाते हैं, तो फिर दण्ड देने से ईश्वर को क्या लाभ हुआ ? जो कि अनंत काल से इसी विडम्बना में फंसा चला आ रहा है ? तथा तुम यह तो बताओ कि ईश्वर को सृष्टि रचने से क्या प्रयोजन था ?
प्रतिवादीः-ईश्वर को सृष्टि नहीं रचने का क्या प्रयोजन था?
सिद्धान्तीः-वाह रे बछड़े के बाबा ! यह तूने अच्छा