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जैनवत्त्वादर्श
घुग से खाई हुई है। क्योंकि जब ईश्वर सर्वज्ञ है तब तो सर्वज्ञ के ज्ञान में एक ही सरीखा भान होना चाहिये, तो फिर विवाद क्यों कर होगा ? तथा ईश्वर तो राग, द्वेष, ईर्ष्या, अभिमानादि सर्व दूषणों से रहित है, तब तो दूसरे ईश्वर को देख कर ईर्ष्या अभिमान क्योंकर करेंगे ? जेकर ईश्वर हो कर भी आपस में विवाद, झगडे, ईर्ष्या, अभिमान करेंगे, तो तिन पामरों को ईश्वर ही कैसे माना जायगा ? जब कि जगत् का कर्त्ता ही ईश्वर सिद्ध नहीं होता, तब ईश्वरों का आपस में विवाद झगड़ा ही काहे को होगा ? इस वास्ते ईश्वर अनंते मानने में कुछ भी दूषया नहीं ।
तथा ईश्वर सर्वव्यापक है—यह भी जो मानते हैं, सो भी प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि जो वादी सर्वव्यापकता - ईश्वर को सर्व व्यापक मानते हैं, क्या वो का प्रतिवाद उस को शरीर करके व्यापक मानते हैं ? वा ज्ञान स्वरूप करके व्यापक मानते हैं ? जे कर शरीर करके ईश्वर को व्यापक मानेंगे, तब तो ईश्वर का शरीर ही सब जगा समा जायगा, दूसरे पदार्थों के रहने वास्ते कोई भी अवकाश न मिलेगा । इस वास्ते ईश्वर देह करके तो सर्वत्र व्यापक नहीं है।
प्रश्नः - क्या ईश्वर के भी शरीर है, जो तुम ऐसे विकल्प 'करते हो ?
उत्तरः- हे भव्य ! ऐसे भी इस जगत् में मत हैं, जो - ईश्वर को देह धारी मानते हैं ।