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द्वितीय परिच्छेद तव मरने वाले ने जो सङ्कट पाया, सो किस के योग से ? किसकी प्रेरणा से ? जे कर कहोगे कि ईश्वरने उस शस्त्र वाले को प्रेरा, तब उस ने उस को मारा, तो फिर उस मारने वाले को फांसी क्यों मिलती है ? क्या ईश्वर का यही न्याय हैं ? जो कि प्रथम तो पुरुष के हाथ से उस को स्वयं मरवा डालना, अरु पीछे उस मारने वाले को फांसी देना, इस तुमारो समझ ने ईश्वर को बड़ा अन्यायी सिद्ध कर दिया है । जेकर कहो कि ईश्वर की प्रेरणा के विना ही उस पुरुप ने दूसरे पुरुष को मारा, अरु दुःख दिया है। तव तो निमित्त ही से सुख दुःख का भोगना सिद्ध हो गया । फिर भी ईश्वर को ही फलदाता कल्पना करना, क्या यह अल्प बुद्धि वालों का काम नहीं है ? तथा हे ईश्वरवादी! हम तुम को एक और बात पूछते हैं, कि जो धर्म का फल-स्वर्गलोक में उन्मत्त देवांगनाओं के सुकुमार शरीर का स्पर्श करना है, सो तो जीवों को सुख का कारण है । इस वास्ते ईश्वर ने यह फल उन जीवों को दिया। परन्तु घोर नरक के कुण्ड में पड़ना, नाना प्रकार के दुःख-संकट, त्रास, कुम्भीपाक, चर्मउत्कर्तन, अग्नि में जलना, इत्यादि महा दुःख रूप जो अधर्म का फल है, वो उन जीवों को ईश्वर क्यों देता है ?
प्रतिवादीः-जीव ने पाप कर्म करे थे, उन का फल उस जीव को ज़रूर देना चाहिये, इस वास्ते ईश्वर फल देता है।
सिद्धान्तीःइस तुमारे कहने से तो ईश्वर व्यर्थ ही