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द्वितीय परिच्छेद
१४३ शक्तिमान हैं । तथा जेकर कहो कि जीव पाप भी आप ही करता है, अरु धर्म भी आप ही करता है । तो फिर फल भी वह आप ही भोग लेवेगा, इस के वास्ते ईश्वर कर्त्ता की कल्पना करना व्यर्थ है ।
प्रतिवादी: - धर्म अधर्म तो जीव आप ही करते हैं, परन्तु उन का फलप्रदान तो ईश्वर ही करता है । क्योंकि जीव जो हैं, सो अपने करे हुए धर्म अधर्म का फल आप भोगने को समर्थ नहीं हैं | जैसे चोर, चोरी तो आप ही करता है, परन्तु उस चोरी का फल जो वन्दीखाना - जेल खाना है । उस में वोह आप हो नहीं चला जाता, किन्तु कोई दूसरा उसे बन्दीखाने में डालने वाला चाहिये ।
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सिद्धान्ती:- यह भी तुमारा कहना असत् है, क्योंकि जब जीव धर्म, अधर्म करने में समर्थ है, तो फिर फल भोगने में 'समर्थ क्यों नहीं ? इस संसार में जीव जैसे जैसे पाप, वा धर्म करता है, तैसे तैसे पाप और धर्म के फल भोगने में वह निमित्त भी बन जाता है । जैसे चोर चोरी करता है, तिस का फल -इण्ड राजा देता है । कुछ हो जाता है, शरीर में कीड़े पड़ जाते हैं, अद्मि में ल मरता है, पाणी में डूब मरता है, खड्ग से कट जाना है, तोप बंदूक की गोला गोली से मर जाता है, हाट, हवेली, और मट्टी के नीचे दब कर अनेक तरें के सङ्कट भोग कर मर जाता है, निर्धन हो जाता है, इत्यादि असंख्य निमित्तों से अपने करे कर्म के
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