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द्वितीय परिच्छेद
१४१ सब जीवों को सत् व्यवहार ही में प्रवृत्त करते हैं, असत् व्यवहार में नहीं । परन्तु ईश्वर तो असत् व्यवहारों में भी जीवों को प्रवृत्त करता है, इस वास्ते आप का ईश्वर सर्वज्ञ भौर वीतराग नहीं हो सकता ।
प्रतिवादी: - ईश्वर तो सर्व जीवों को शुभ कर्म करने में ही प्रवृत्त करता है, इस वास्ते वह सर्वज्ञ और वीतराग ही है । तथा जो जीव अधर्म करने वाले हैं, उन को असत् व्यवहार में प्रवृत्त कर, पीछे नरकपात आदि फल देता है । जिस से कि फिर वो जीव इस नरकपात यदि दुःख से डरता हुआ पाप न करे । इस वास्ते उचित फल देने से ईश्वर विवेकवान् अरु वीतराग तथा सर्वज्ञ है । उस में कोई भी दूषण नहीं है।
सिद्धान्ती:- यह भी तुमारा
कहना विचार युक्त नहीं है । क्योंकि प्रथम जीव को पाप करने में भी तो ईश्वर ही प्रवृत्त करता है । ईश्वर के बिना दूसरा तो कोई प्रेरक है नहीं । अरु जी आप तो कुछ कर ही नहीं सकता, क्योंकि वह अज्ञानी है । तो फिर प्रथम पाप करने में जीवों को प्रवृत्त करना, पीछे उन को नरक में डाल कर, उस पाप का फल भुगताना, तदनन्तर उन को धर्म में प्रवृत्त करनाक्या यही ईश्वर की ईश्वरता प्ररु विचारपूर्वक काम करना है ?
प्रतिवादी: - ईश्वर तो जीवों को भले बुरे काम में