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द्वितीय परिच्छेद क्योंकि जब कोई पुण्यवान् राजा राज करता है, तो उसके राज में सुकाल, निरुपद्रव आदि के कारण जो सुख होता है: वो उस राजा के शुभ कर्म का प्रभाव है। इस कारण से जो ठहर ठहर जीवों को फल देते हैं, सो कर्म हैं । कर्म जो हैं सो जीवों के आश्रय हैं, अरु जीव जो हैं सो चेतन होने से बुद्धि वाले हैं। तब तो बुद्धि वाले के अधीन हो कर कर्म ठहर ठहर कर फल देते हैं । इस कारण से सिद्ध. साधन दुपण है । जेकर कहोगे कि पूर्वोक्त अनुमान से हम तो विशिष्ट बुद्धि वाला एक ईश्वर ही सिद्ध करते हैं; सामान्य बुद्धि वाले जीवों को सिद्ध नहीं करते । तब तो “तुमारा दृष्टांत साध्यविकल है । क्योंकि वसोला, पारो प्रमुख में ईश्वर से अधिष्ठित व्यापार की उपलब्धि नहीं होती, किंतु बढ़ई और कुंभकारादिकों का व्यापार तहां तहां ही अिन्वयव्यतिरेक करके उपलब्ध होता है।
प्रतिवादी-वर्धकि-बढ़ई आदि भी ईश्वर ही की प्रेरणा से तिस तिस काम में प्रवृत्त होते हैं, इस वास्ते हमारा दांत साध्यविकल नहीं है । wrimrrrrrrrrrrrrrrrr armmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
* समयानुसार, यथा समय।
+ 'अन्वय'-जिस के होने पर जो होवे, जैसे धूम के होने पर अग्नि का होना । 'व्यतिरेक'-जिस के अभाव में जो न होवे, जैसे अनि के अभाव में धूम का न होना । इन दोनो नियमों से व्याप्ति का निर्णय होता है।