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द्वितीय परिच्छेद धर्मी का एक देश, वृक्ष, बिजली, बादल, इंद्रधनुषादिकों का अव भी कोई बुद्धिमान कर्ता नहीं दीख पड़ता है, इस वास्ते प्रत्यक्ष करके वाधित होने के पीछे तुम ने अपना हेतु कहा है, इस वास्ते तुमारा हेतु कालात्ययापदिष्ट है। अतः इस कार्यत्व हेतु से बुद्धिमान ईश्वर जगत् का कर्ता कभी सिद्ध नहीं होता।
तथा दूसरी तरें जगत् कर्ता के खण्डन का खरूप लिखते हैं। जो कोई ईश्वरवादी यह कहते हैं, कि सब जगत् ईश्वर का रचा हुआ है, यह उनका कहना समीचीन नहीं है। काहेते, कि जगत् का कर्ता ईश्वर किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है।
प्रतिवादी-ईश्वर को जगत् का कर्ता सिद्ध करने वाला अनुमान प्रमाण है । तथाहि-जो ठहर ठहर करके अभिमत फल के संपादन करने में प्रवृत्त होवे, तिसका अधिष्ठाता कोई बुद्धिमान ज़रूर होना चाहिये । जैसे वसोला, प्रारी प्रमुख शस्त्र, काष्ठ के दो टुकड़े करने में प्रवर्त्तते हैं । और तिन का अधिष्ठाता बढ़ई है; तैसे ही ठहर ठहर कर सब जगत् को सुख दुःखादिक जो फल मिलते हैं, तिनका अधिष्ठाता कोई बुद्धिमान् ज़रूर होना चाहिये । तुम ने ऐसे न कहना कि वसोला, भारी प्रमुख काष्ठ के दो टुकड़े करने में आप ही-प्रवृत्त होते हैं। क्योंकि वो तो अचेतन हैं, आप ही कैसे प्रवृत्त हो सकेंगे? जेकर कहो कि