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ज़ैनतत्त्वादर्श
प्रमाण ही नहीं है, जिस से ईश्वर का माहात्म्य सिद्ध होवे । अरु इस तुमारे कहने में इतरेतराश्रय दूषण भी है यथाजब माहात्म्यविशेष सिद्ध हो जावे, तब अवश्य शरीर वाला सिद्ध होवे; जब अदृश्य शरीर वाला सिद्ध होवे, तब माहात्म्यविशेष सिद्ध होवे । जेकर दूसरा पक्ष - पिशाचादिकों की तरे अदृश्य शरीर ईश्वर का है, ऐसे मानोगे, तब तो संशय की ही निवृत्ति नहीं होगी । जैसे—क्या ईश्वर है नहीं, जिस करके उसका शरीर नहीं दीख पडता; वन्ध्या, पुत्र के शरीर की तरे, किवा हमारे पूर्व पापों के प्रभाव से ईश्वर का शरीर नहीं दोखता; यह संशय कभी दूर नहीं होवेगा । जेकर कहोगे कि हमारा ईश्वर शरीर रहित है, तब तो दृष्टांत अरु दार्शतिक यह दोनों विषम हो जावेंगे और हेतु विरुद्ध हो जावेगा। क्योंकि घटादिक कार्यों के कर्त्ता कुंभारादिक तो शरीर वाले ही दीख पडते हैं । परन्तु ईश्वर को जब शरीर रहित मानोगे तब तो ईश्वर कुछ भी कार्य करने को समर्थ नहीं होवेगा, आकाश की तरें । अर्थात् जैसे शरीर रहित व्यापक और अक्रिय होने से आकाश कोई कार्य प्रयत्नविशेष नहीं कर सकता । उसी प्रकार शरीर रहित ईश्वर भी किसी कार्य के करने में समर्थ नहीं है । इस प्रकार शरीर सहित तथा शरीर रहित ईश्वर के साथ कार्यत्व हेतु की व्याप्ति सिद्ध नहीं होती ! तथा यह हेतु कालात्ययापदिष्ट भी है, क्योंकि साध्य के
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