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जैनतत्त्वादर्श
जीवों को पीडा देता है, क्योंकि जब ईश्वर पाप करने वाले जीव को पाप का फल न देगा, तब तो वह जीव कर्म का फल भोग नहीं सकेगा, फिर आगे को न तो शरीर ही धारेगा अरु न नवीन पाप ही करेगा। फिर पता नहीं कि बैठे बिठाये ईश्वर को क्या गुदगुदी उठती है, जो कि उन जीवों को नरक में डाल देता है ? परन्तु जो मध्यस्थ भाव वाला अरु परम दयालु होता है, वो किसी जीव को कभी निरर्थक पीडा नहीं देता ।
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प्रतिवादी: - ईश्वर अपनी क्रोडा के वास्ते किसी को नरक में डालता है, किसी को तिर्यच योनिमें उत्पन्न करता है, किसी को मनुष्य जन्म में, और किसी को स्वर्ग में उत्पन्न करता है। जब वो जीव नाचते कूदते, रोते, पीटते और विलाप करते हैं. तब ईश्वर अपनी रची हुई सृष्टि रूप बाज़ी का तमाशा देखता है, इस वास्ते जगत् रचता है ।
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सिद्धान्ती :- जब ऐसे है, तब तो ईश्वर प्रेक्षावान् नहीं है, क्योंकि उस की तो क्रीडा है, परन्तु बिचारे रंक जीव तड़फ तड़फ के महाकरुणास्पद हो कर मर रहे हैं। तो फिर ईश्वर को दयालु मानना बड़ी भारी अज्ञानता है । क्योंकि जो महा पुरुष दयालु और सर्वज्ञ होते हैं, वे कदापि किसी जीव को दुःख देकर क्रीडा नहीं करते । तो फिर ईश्वर होकर वह क्रीडार्थी कैसे हो सकता है ? तथा
* विचार शील, बुद्धिमान् ।