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द्वितीय परिच्छेद
१३५ के बिना ही अब भी उत्पन्न होते हुए तृण, वृक्ष, इन्द्रधनुष, अरु वादल प्रमुख कार्य देखने में आते हैं । [अर्थात् इन उक्त तृण अंकुरादि की उत्पत्ति में किसी दृश्य शरीर वाले ईश्वर का हाथ दिखाई नहीं देता] इस वास्ते जैसे 'शब्दोऽनित्यः प्रमेयत्वात्' इस में प्रमेयत्व हेतु साधारण अनैकांतिक है, तैसे ही यह कार्यत्व हेतु भी साधारण अनैकांतिक है ।
जेकर दुसरा पक्ष मानोगे अर्थात् ईश्वर का शरीर तो है पर दिखाई नहीं देता । तब जो ईश्वर का शरीर दिखलाई नहीं देता, सो क्या ईश्वर के माहात्म्य करके दिखलाई नहीं देता ? अथवा हमारे बुरे अदृष्ट का प्रभाव है ? एतावता हमारे खोटे कर्म के प्रभाव से नहीं दिखलाई देता ? जेकर प्रथम पक्ष ग्रहण करो कि ईश्वर के माहात्म्य से ईश्वर का शरीर नहीं दीखता । तो इस पक्ष में कोई
* जो हेतु विपक्ष मे भो पाया जावे अर्थात् जहा पर साध्य न रहता हो वहा भी रह जावे, वह हेतु साधारण अनैकान्तिक या व्यभिचारी कहलाता है । जैसे-शब्द अनित्य हैं, प्रमेय - ज्ञान का विषय होने से इस अनुमान में प्रमेय होना रूप हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि यह विपचभूत आकाश आदि नित्य पदार्थों में भी रहता है । इसी प्रकार कार्यत्व हेतु भी व्यभिचारी है । क्योकि यह हेतु उन पदार्थों तृण, अंकुर आदि में भी रह जाता है जिन को ईश्वर के शरीर ने नही बनाया है । अतः इस हेतु से ईश्वर के कर्तृत्व की सिद्धि नही हो सकती ।
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