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द्वितीय परिच्छेद
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जेकर वह सर्वज्ञ न होवेगा तब तो सर्व कार्यों के उपादान कारण को कैसे जानेगा ? जब कार्यों के उपादान कारण को नहीं जानेगा, तब तो कारण के अनुरूप इस विचित्र जगत् की रचना कैसे कर सकेगा ? तथा 'स्ववश': - ईश्वर जो है, सो स्वतंत्र है, किसी दूसरे के अधीन नहीं । ईश्वर अपनी इच्छा से सर्व जीवों को सुख दुःख का फल देता है । यथा
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्, स्वर्ग वा भ्रमेव वा । अज्ञो जंतुरनीशोऽय - मात्मनः सुखदुःखयोः || अर्थ:- ईश्वर ही की प्रेरणा से यह जगत्वासी जीव स्वर्ग तथा नरक में जाता है, क्योंकि ईश्वर के बिना यह अज्ञ जीव अपने श्राप सुख दुःख का फल उत्पन्न करने को समर्थ नहीं है । जेकर ईश्वर को भी परतंत्र - पराधीन मानिये, तब तो मुख्य कर्त्ता ईश्वर कभी नहीं रहेगा । * अपर को अपर के अधीन मानने से अनवस्था दूषण लगेगा । इस हेतु से ईश्वर अपने ही वश अर्थात् स्वतंत्र है, किन्तु पराधीन नहीं । तथा, 'नित्य: -- सो ईश्वर नित्य है । जेकर ईश्वर अनित्य होवे तो तिस के उत्पन्न करने वाला भी कोई और चाहिये. सो तो है नहीं, इस हेतु से ईश्वर नित्य ही है । पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त ईश्वर इस जगत् का कर्त्ता है । इस
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* एक ईश्वर को दूसरे ईश्वर के अवीन और दूसरे को तीर के अधीन मानने मे ।