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जनतत्वादर्श
है । अरु हमारा जो हेतु है, सो निरवद्य है।
तथा ईश्वर जो है सो एक-ग्रद्वितीय है, क्योंकि जो बहुत से ईश्वर मानें, तब तो कार्य करने में ईश्वरों की न्यारी न्यारी बुद्धि होगी । और कार्य भी इनका न्यारा २ होगा; क्योंकि इनको मने करने वाला तो और कोई नहीं है। फिर एक रूप कार्य कैसे उत्पन्न होगा ? कोई ईश्वर तो अपनी इच्छा से चार पग वाला मनुष्य रच देवेगा, अरु दूसरा ईश्वर छः पग वाला रच देवेगा, तथा तीसरा दो पग वाला, ग्ररु चौथा आठ पग वाला रच देवेगा । इसी तरे सर्व वस्तु को विलक्षण विलक्षण रच देवेंगे, तब तो सर्व जगत् असमंजस रूप हो जावेगा । परन्तु सो है नहीं । इस हेतु से ईश्वर एक ही होना चाहिये । तथा वो ईश्वर सर्वगत - सर्वव्यापी है । जेकर ईश्वर सर्व व्यापक न होवे, तब तो तीन भुवन में एक साथ जो उत्पन्न होने वाले कार्य हैं, वो सर्व एक काल में कभी उत्पन्न न होंगे । जैसे, कुम्भारादिक जहां पर होवेंगे, तहां पर ही कुम्भादि को बना सकेंगे, अन्यत्र नहीं । इसी प्रकार ईश्वर भी यदि सर्व व्यापी न माना जावे तो वो भी किसी एक प्रदेश में ही कार्य कर सकेगा, सर्वत्र कभी नहीं । अतः ईश्वर सर्व व्यापी होना चाहिये | अथवा वो ईश्वर + ' सर्वगः - सर्वज्ञ है ।
* समानता और क्रमबद्ध रचना का अभाव ।
+ अथवा सर्व गच्छति जानातीति सर्वग - सर्वज्ञ: "सर्वे गत्यर्थ ज्ञानार्थाः" इति वचनान् [स्या० इलो - ० ६ ] अर्थात् जो सब कुछ जाने उसे सर्वज्ञ कहते हैं ।
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