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द्वितीय परिच्छेद
१२६ * कर्तास्ति कश्चिजगतः स चैकः,
स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । इमा. कुहेवाकविडंबनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ।।
[अन्य० व्य०, श्लो० ६ ] यह जो जगत् है, सो प्रत्यक्षादि प्रमाणों करके लक्ष्यमाण-दिखाई देता है, इस चराचर रूप जगत् का कोई एक. जिस का स्वरूप कह नहीं सकते ऐसा पुरुषविशेष रचने वाला हैं । ईश्वर को जगत् का कर्ता मानने वाले
वादी ऐसे अनुमान करते हैं-पृथिवी, ईश्वर साधक पर्वत, वृक्षादिक सर्व बुद्धि वाले कर्ता के करे अनुमान हुए हैं, कार्य होने से, जो जो कार्य है, सो सो
सर्व वुद्धि वाले का करा हुआ है, जैसे घट, तैसे ही यह जगत है, तिस कारण से यह जगत् बुद्धि वाले का रचा हुआ है । जो बुद्धिवाला है; सोही भगवान ईश्वर है। यहां ऐसा मत कहना, कि यह तुमारा कार्यत्व हेतु प्रसिद्ध है [अर्थात् पृथ्वी पर्वतादिक में कार्यत्व सिद्ध नहीं है। पृथ्वी, पर्वत, वृक्षादिक अपने अपने कारण समूह करके उत्पन्न होते हैं, इस वास्ते कार्य रूप हैं । तथा अवयवी हैं,
* हे नाथ ! जिन के आप शासक नहीं हैं, उन की दुराग्रह से परिपूर्ण यह कल्पनाएं हैं कि जगत का कोई कर्ता है और वह एक, सर्वव्यापी, खतन्त्र तथा नित्य है ।