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द्वितीय परिच्छेद
१२७ अविद्या हेतु, और दृष्टांत आदिका भेद कैसे दिखा सकेगी ? जेकर कहोगे प्रतिभास के बाहिर है, तब तो हम पूछेगे कि वो अविद्या, प्रतिभासमान है ? वा अप्रतिभासमान ? जेकर कहोगे प्रतिभासमान है, तो तिसहीके साथ प्रतिभासमान हेतु व्यभिचारी है । तथा प्रतिभासके बाहिर होनेसे जेकर तुमारे मनमें ऐसा होवे कि अविद्या जो है, लो न तो प्रतिभासमान है, न अप्रतिभासमान; तथा न प्रतिभास के बाहिर, न प्रतिभासके अन्दर प्रविष्ट है; न एक है, न अनेक है। न नित्य है, न अनित्य है; न व्यभिचारिणी है, न अव्यभिचारिणीः सर्वथा विचार के योग्य नहीं सकल विचारांतर अतिक्रांत स्वरूप है । रूपांतर के अभाव से अविद्या जो है, सो "नीरूपता" लक्षण वाली है। परन्तु यह भी तुमारी बड़ी भारी अज्ञानता है । क्योंकि ऐसी नीरूप स्वभाव वाली को यह अविद्या है, यह अप्रतिभासमान है, ऐसे कौन कथन करने को समर्थ है ? जेकर कहोगे यह प्रतिभासमान है, तो फिर यह अविद्या नीरूप क्योंकर सिद्ध होगी। जो वस्तु, जिस रूप करके प्रतिभासमान है, सो ही तिस का स्वरूप है । तथा अविद्या जो है सो विचार गोचर है, वा विचार के अगोचर है ? जेकर कहोगे कि विचार गोचर है, तव तो नीरूप नहीं । जेकर विचार गोचर नहीं, तव तो तिसके मानने वाला महा मूर्ख है । तथा जब विद्या अविद्या दोनों ही प्रमाणसिद्ध हैं; तो फिर एक ही