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द्वितीय परिच्छेद भेदनान प्रत्ययों के निरालवन पने की सिद्धि है।
उत्तरपक्ष -ए कथन भी तुमारा ठीक नहीं है, क्योंकि परम ब्रह्म ही प्रथम सिद्ध नहीं है। जेकर कहो कि वो स्वतः सिद्ध है, तो यह कथन भी प्रामाणिक नहीं है क्योंकि जो स्वतः सिद्ध-प्रत्यक्ष से सिद्ध होवे तो फिर उस के विषे किसी का विवाद ही न रहे । इस से वो स्वतः सिद्ध तो है नहीं। तथा जेकर उस को परतः सिद्ध मानो तो उसकी परतः सिद्धि, क्या अनुमान से है, वा आगम से है ?
पूर्वपक्षः-उस की सिद्धि अनुमान और पागम दोनों से हो सकती है । उस में से अनुमान यह हैः-विवादरूप जो पदार्थ है सो प्रतिभासांतःप्रविष्ट-ब्रह्मभास के अन्तर है, प्रतिभासमान होने से, जो जो प्रतिभासमान है, सो सो *प्रतिभासांत प्रविष्ट ही देखा है, जैसे प्रतिभास का स्वरूप प्रतिभासमान है। विवाद रूप समस्त सचेतन, अचेतन घट पटादि पदार्थ प्रतिभासमान हैं, जिस कारण से प्रतिभासान्तःप्रविष्ट हैं, इस अनुमान से अद्वैतरूप परमब्रह्म की सिद्धि हो जाती है: । * प्रतिभाम के अन्तर्गत । प्रतिभास-प्रकाशस्वरूप ब्रह्म । : ग्रामारामादयः पदार्थाः प्रतिभासान्तःप्रविष्टाः, प्रतिभासमानत्वात् , यत्प्रतिभामते तत्प्रतिभासान्तःप्रविष्टम् , यथा प्रतिभासस्वरूपम् । प्रतिभासन्ते च ग्रामारामादयः पदाथी', तस्मात् प्रतिभामान्त प्रविष्टाः ।
[स्या. मं० लो० १३ ]