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द्वितीय परिच्छेद तथा भ्रांति भी प्रमाणभूत अद्वैत से भिन्न ही माननी चाहिये, अन्यथा प्रमाण भूत अद्वैत अप्रमाण ही हो जावेगा। क्योंकि भ्रांति जब अद्वैत रूप हुई तब तो पुरुष का ही रूप हुई, फिर तो पुरुष भी भ्रान्तिवाला ही सिद्ध होगा । तत्र तो तत्व व्यवस्था कुछ भी सिद्ध न होगी । जेकर भ्रांति को मिन्न मानोगे, तव तो द्वैतापत्ति होवेगी, इस से अद्वैत मत की हानि हो जावेगी । जेकर स्तंभ का कुम्भादिकों से भेद मानना-इसी को भ्रांति कहोगे, तब तो निश्चय कर के सतस्वरूप कुम्भादिक किसी जगे तो ज़रूर होंगे। क्योंकि अभ्रांति के विना कदापि भ्रांति देखने में नहीं माती, जैसे पूर्व में जिस ने सच्चा सर नहीं देखा, तिस को रज्जु में सर्प की भ्रांति कदापि नहीं होती। यथा
नादृष्टपूर्वसर्पस्य, रज्ज्वां सर्पमतिः क्वचित् । ततः पूर्वानुसारित्वाद्भांतिरथांतिपूर्विका ॥ इस कहने मे भी अद्वैततत्व का खंडन होगया, तथा अद्वैत रूप तत्व अवश्य करके दुसरे पुरुष को निवेदन करना होगा, अपने आप को नहीं । अपने में तो व्यामोह है नहीं। जे कर कहने वाले में व्यामोह होवे तव तो अद्वैत की प्रतिपत्ति कभी भी नहीं होवेगी।
पूर्वपक्षः-जव आत्मा को व्यामोह है, तब ही तो अद्वैत तत्त्व का उपदेश किया जाता है।