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द्वितीय परिच्छेद
११५ सरसवाणी के प्रति कहने लगे कि हे माता ! तुम ६ महीने तक इहां ही रहो, पीछे मैं सर्व रहस्यमय अर्थों का निश्चय करके तेरे पूछे का उत्तर कहूँगा । ऐसे कह कर प्राग्रह पूर्वक सरसवाणी को तहां ही आकाशमंडल में स्थापन करके सर्व शिष्यों को यथास्थान भेज कर उन में से हस्तामलक, पद्मगाद, विधिवित् और आनंदगिरि, इन चार प्रधान शिष्यों को साथ लेकर, तिस नगर से पश्चिमदिशा की ओर अमृतपुर नाम के नगर में पहुंचे । उस नगर का राजा मर गया था, उस का शरीर तिस अवसर में चिता में जलाने के वास्ते रक्खा था । उस शरीर को देख कर शंकर स्वामी ने अपना शरीर उस नगर के प्रांत में एक पर्वत की गुफा में स्थापन कर दिया, और शिष्यों को कह दिया कि तुमने इस शरीर की रक्षा करनी । अरु आप परकायप्रवेशविद्या करके, लिंगशरीर संयुक्त अभिमान सहित उस
* मातस्त्वत्रैव पण्मासं तिष्ठ पश्चात्कथासु च । ___ सति ! सर्व विभेटासु करोम्यर्थविनिर्णयम् ॥
[शं० वि०, प्र० ५८] + स्थूल शरीर के अतिरिक्त एक सूक्ष्म शरीर है जिस की सर्वत्र अव्याहत गति है, अर्थात् उसके प्रवेश को कहीं पर भी रुकावट नहीं है और वह मोक्ष पर्यन्त आत्मा के साथ रहता है । पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार इन-अठारह तत्वों से यह निर्मित है। जैन सिद्धान्त में इस के स्थानापन्न कार्मण शरीर है ।
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