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द्वितीय परिच्छेद १४. त्वद्रपमेवमस्माभि विदितं राजन् ! तव पूर्वय
त्याश्रमस्थम् ॥ [श० वि०, प्र० ५६ ] इन परोक्तियों करके राजा को प्रतिबोध हुआ। तब सब के सन्मुख शंकर स्वामी का जीव तिस राजा की देह से निकल कर जव उस पर्वत की कंदरा में पहुंचा तब उसने अपने शरीर को वहां न देख कर चिता में देखा । अरु देखते ही कपाल मध्य में से होकर उसमें प्रवेश किया, परन्तु शरीर के चारों ओर अग्नि प्रज्वलित हो रही थी, इससे निकलना दुष्कर होगया। फिर वहां पर शङ्कर स्वामी ने लक्ष्मीनृसिंह की स्तुति करी। तब लक्ष्मी नृसिह ने शङ्कर स्वामी को जीता अग्नि में से बाहिर निकाला। इत्यादि। ७ -जैमिनि ऋषि ने जिस समस्त कर्मतत्त्व का प्रतिपादन किया है,
हे राजन् ! वह तू है, २॥ ८-पाणिनि ऋपि ने जिस शब्दस्वरूप तत्त्व का कथन किया है,
वह तू है, २। ९-जो सांख्यों का अभिमत तत्त्व है, वह तू है, २। १०-अष्टागयोग के द्वारा जानने योग्य अनन्तस्वरूप जो तत्व है,
वह तू है, २। ११-हे राजन् ! सत्यज्ञान और अनन्तस्वरूप जो ब्रह्म है, वह तू है, २ । १२-इस दृश्य प्रपंच से भिन्न जो तत्त्व है, वह तू है, २।। १३-ब्रह्म का ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप जो तत्त्व है, वह तू है, २ । -१४-हे राजन् ! श्राप के पूर्वाश्रम के स्वरूप को हमने जान लिया है।