________________
द्वितीय परिच्छेद
१०५ तरे ग्रहण करने में क्या दूषण है ? तो फिर तुम ने यह जो ऊपर प्रतिज्ञा करी थी, कि हम तो जो प्रतीत नहीं होवे, उस को अनिर्वाच्य कहते हैं, यह मिथ्या ठहरेगी और फिर प्रपंच भी अनिर्वाच्य सिद्ध नहीं होगा ? जव प्रपंच अनिर्वाच्य नहीं, तब या तो वो भाव रूप सिद्ध होगा, या अभावरूप सिद्ध होगा । इन दोनों ही पक्षों में एक रूप प्रपंच को मानने से पूर्वोक्त असतूख्याति तथा सतख्याति रूप दोनों दूषण फिर तुमारे गले में रस्सो डालते हैं, अव भाग कर कहां जावोगे ? अच्छा हम फिर तुम को पूछते हैं कि यह जो तुम इस प्रपंच को अनिर्वाच्य मानते हो, सो प्रत्यक्ष प्रमाण से मानते हो? वा अनुमान प्रमाण से मानते हो ? प्रत्यक्ष प्रमाण तो इस प्रपंच को सत् स्वरूप ही सिद्ध करता है, जैसा जैसा पदार्थ है, तैसा तेसा ही उसका प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है, अरु प्रपंच जो है सो परस्पर-आपस में न्यारी न्यारी वस्तु, सो अपने अपने स्वरूप में भाव रूप है, अरु दुसरे पदार्थ के स्वरूप की अपेक्षा से प्रभाव रूप है । इस इतरेतर विविक्त वस्तुओं का समुदाय ही प्रपंच माना है । तो फिर प्रत्यक्ष प्रमाण इस प्रपंच को अनिर्वाच्य कैसे सिद्ध कर सकता है ?
पूर्वपक्षः-पूर्वोक्त जो हमारा पक्ष है, तिस को प्रत्यक्ष, *प्रतिक्षेप नहीं कर सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष तो विधायक ही है, जेकर प्रत्यक्ष इतर वस्तु में इतर वस्तु के स्वरूप का
*-खंडित।
-v-...
.
www.w.www.
.vvvvvvvivar