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द्वितीय परिच्छेद
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तैसा ब्राह्मण; जैसा गधा,
जैसा चाण्डाल, तैसा सन्यासी । क्योंकि जब सर्व वस्तु का कारण - उपादान ईश्वर परमात्मा हो ठहरा, तब तो सर्व जगत् एकरस - एक स्वरूप है; दूसरा तो कोई है नहीं ।
पूर्वपक्ष:- हम एक ब्रह्म मानते हैं, अरु एक माया मानते हैं, सो तुम ने जो ऊपर बहुत से प्रांल जंजाल लिखे हैं, सो तो सर्व मायाजन्य हैं अरु ब्रह्म तो सच्चिदानंद शुद्ध स्वरूप एक ही है ।
उत्तरपक्षः -- हे अद्वैतवादी ! यह जो तुमने पक्ष माना है सो बहुत प्रसमीचीन है । यथा-माया जो है तिस का ब्रह्म से भेद है, वा अभेद है ? जे कर भेद है तो जड है, वा चेतन है ? जे कर जड है, तो फिर नित्य है, वा अनित्य है ? जेकर कहोगे कि नित्य है, तो यह मान्यता अद्वैत मत के मूल को ही दाह करती है, क्योंकि जब ब्रह्म से भेद रूप हुई, अरु जड रूप भई, अरु नित्य हुई, फिर तो तुमने अद्वैत पंथमत आप ही अपने कहने से सिद्ध कर लिया । रु अद्वैत पंथ जड मूल से कट गया । जे कर कहोगे कि अनित्य है, तो द्वैतता कभी दूर नहीं होगी। क्योंकि जो नाश होने वाला है, सो कार्य रूप है, श्ररु जो कार्य है सो कारण जन्य है । तो फिर उस माया का उपादान कारण कौन है ? सो कहना चाहिये । जेकर कहोगे कि अपर माया, तब तो अनवस्था दूषण है, अरु अद्वैत तीनों कालों में कदापि सिद्ध नहीं