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द्वितीय परिच्छेद
१०६ स्वरूप ही है । जे कर कहोगे कि असत् स्वरूप है, तो फिर ब्रह्मादि शब्द से कहे हुए पदार्थ कैसे सत् स्वरूप हो सकेंगे? क्योंकि जो आप ही असत् स्वरूप है, सो पर की व्यवस्था करने वा कहने का हेतु कभी नहीं हो सकता। • पूर्वपक्षः-जैसे खोटा रुपया सत्य रुपये के क्रय विक्रयादिक व्यवहार का जनक होने से सत्य रुपया माना जाता है, तैसे ही हमारा अनुमान यद्यपि असत् स्वरूप है तो भी जगत् में सत् व्यवहार करके प्रवृत्त होने से व्यवहार सत् है। इस वास्ते अपने साध्य का साधक है।
उत्तरपक्षः-हे भव्य ! इस तुमारे कहने से तो तुमारा अनुमान पारमार्थिक असत् स्वरूप ठहरता है, फिर तो जो दुपण असत् पक्ष में दीने है, सो सर्व ही इहां पडेंगे। जे कर कहोगे कि हम प्रपंच से अनुमान को अभिन्न मानते हैं, तव तो प्रपंच की तरें अनुमान भी मिथ्या रूप ही ठहरा, फिर वह अपने साध्य को कैसे साध सकेगा ? इस पूर्वोक्त विचार से प्रपंच मिथ्या रूप नहीं, किन्तु आत्मा की तरें सतस्वरूप है, तो फिर एक ही ब्रह्म अद्वैत तत्त्व है, यह तुमारा कहना क्योंकर सत्य हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता।
पूर्वपक्षः-हमारी *उपनिपदों में तथा शंकर स्वामी के
* यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत् प्रयन्त्यभिमविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्त्र तब्रह्मेति । तै० उ०, ३-१]
जिस से विश्व के सारे प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिसके आश्रय से