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जैनतत्त्वादर्श उत्तरपक्षः- हम तुमको पूछते हैं कि भाव अरु अभाव इन दोनों का अर्थ जो लोक में प्रसिद्ध है वही तुमने माना है ? वा इस से विपरीत-और तरे का? जेकर प्रथम पक्ष मानोगे तो जहां भाव का निषेध करोगे तहां अवश्यमेव अभाव कहना पडेगा, अरु जहां प्रभाव का निषेध करोगे, तहां अवश्यमेव भाव कहना पडेगा। क्योंकि जो परस्पर विरोधी हैं, तिन में से एक का निषेध करोगे तो दूसरे की विधि अवश्य कहनी पडेगी। तब अनिर्वाच्यता तो जड मूल से नष्ट हो गई । अथ दूसरा पक्ष अंगीकार करो तब भी हमारी कुछ हानि नहीं, क्योंकि अलौकिक, एतावता तुमारे मन कल्पित शब्द अरु शब्द का निमित्त जो नष्ट होजावेगा, तो लौकिक शब्द अरु लौकिक शब्द का निमित्त कदापि नष्ट नहीं होगा, तो फिर अनिर्वाच्य प्रपंच किस तरे सिद्ध होगा ? जब अनिर्वाच्य सिद्ध न हुआ, तो प्रपंच मिथ्या कैसे सिद्ध होगा? तब एक ही अद्वैत ब्रह्म है यह भी सिद्ध न हुआ।
पूर्वपक्षः-हम तो जो प्रतीत न होवे, उसको अनिर्वाच्य कहते हैं। ___ उत्तरपक्ष-इस तुमारे कहने में तो बहुत विरोध भावे है। जे कर प्रपंच प्रतीत नहीं होता तो तुमने अपने प्रथम अनुमान में प्रपंच को धर्मीपने और *प्रतीयमानत्व को हेतुपने क्योंकर ग्रहण किया ? जे कर कहोगे कि इस
* प्रतीति का विषय होना।