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जैनतत्त्वादर्श तमाल, प्रवाल, प्रमुख पदार्थ अग्रगामि रूप करके प्रतीत होते हैं, वह क्योंकर सत् स्वरूप नहीं हैं ? ।
पूर्वपक्षः-ए पूर्वोक्त जो पदार्थ प्रतीत होते हैं, वे सर्व मिथ्या हैं तथाच अनुमान-*प्रपंच मिथ्या है, प्रतीत होने से जो ऐसा है सो ऐसा है, यथा सीप में चांदी का प्रतीत होना, तैसा ही यह प्रपंच है । इस अनुमान से प्रपंच मिथ्या रूप है, अरु एक ब्रह्म ही पारमार्थिक सद्रूप है।
उत्तरपक्षः-हे पूर्वपक्षी! इस अनुमान के कहने से तूं तीक्ष्ण बुद्धिमान नहीं है । सोई बात कहते हैं । यह जो प्रपंच तुमने मिथ्यारूप माना है सो मिथ्या तीन तरे का होता है। एक तो अत्यंत असत् रूप, अरु दुसरा, है तो कुछ और, परन्तु प्रतीति और तरे होवे, अरु तीसरा अनिर्वाच्य, इन तीनों में से कौनसे मिथ्यारूप प्रपंच को माना है ।।
पूर्वपक्ष-इन तीनों पक्षों में से प्रथम दो पक्ष तो मेरे स्वीकार ही नहीं। इस कारण से मै तो तीसरा अनिर्वाच्य पक्ष मानता हूं। सो यह प्रपंच अनिर्वाच्य मिथ्यारूप है। उत्तरपक्षः-प्रथम तो तुम यह कहो कि अनिर्वाच्य क्या
वस्तु है-एतावता तुम अनिर्वाच्य किस अद्वैतवाद का वस्तु को कहते हो ? क्या वस्तु को कहने
खण्डन वाला शब्द नहीं है ? अथवा शब्द का निमित्त
* प्रपंचो मिथ्या, प्रतीयमानत्वात्, यदेव तदेवं यथा शुक्तिशकले कलधौतम् , तथा चायम् , तस्मात्तथा । स्या. रत्ना०, परि० १]