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द्वितीय परिच्छेद
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है ? रु जो क्रीडा करने वाला है, सो बालक की तरे रागी, द्वेषी, श्रज्ञ होता है । जब राग द्वेष है, तो उस में सर्व दूषण हैं। जब आप हो प्रगुणों से भरा है, तो वो ईश्वर काहे का ? वो तो संसारी जीव है । अरु जब राग द्वेष वाला होवेगा तब सर्वज्ञ कदापि न होवेगाः जब सर्वज्ञ नहीं तो उसको ईश्वर कौन बुद्धिमान् कह सकता है ?
पूर्वपक्ष:- जीवों के करे हुए पुराय के अनुसार ईश्वर दंड देता है। इस हेतु से ईश्वर को क्या दोष है ? जैसा जिसने किया, वैसा ही उस को फल दिया ।
उत्तरपक्ष इस तुमारे कहने से यह संसार अनादि सिद्ध हो गया, अरु ईश्वर कर्त्ता नहीं, ऐसा सिद्ध हुआ । वाह रे मित्र ! तैने अपने हाथ से ही अपने पांव पर कुठाराघात किया; क्योंकि जो जीव व हैं, अरु जो कुछ इन को यहां फल मिला है, सो पूर्व जन्म में करा हुआ ठहरा, भरु जो पूर्व जन्म था, उस में जो दुःख सुख जीव को मिला था, वो उस से पूर्व जन्म में करा था, इसी तरे पूर्व पूर्व जन्म में दुःख सुख उपजाने वाला कर्म करना अरु उत्तरोत्तर जन्म में सुख दुख का भोगना इसी तरे संसार अनादि सिद्ध होता है । तो फिर अब सोचो कि जगत् का कर्त्ता ईश्वर कैसे सिद्ध हुआ ?
पूर्वपक्ष - हम तो एक ही परम ब्रह्म पारमार्थिक सद्रूप मानते हैं।
उत्तरपक्षः- जेकर एक ही परम ब्रह्म सद्रूप है, तो फिर यह जो सरल, रसाल, प्रियाल, हिंताल, ताल,