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जैनतत्त्वादर्श ही ईश्वर की आज्ञा से जब जीव ने पुण्य वा पाप करे, तो. फिर पुण्य पाप का फल जीव को नहीं होना चाहिये । जब पुण्य पाप जीव के करे न हुए तब स्वर्ग अरु नरक भी जीव को न होंगे, तब जीव को नरक, स्वर्ग, तिर्यग् अरु मनुष्य, ए चार गति भी न होंगी, जब चार गति न होवेंगी, तब संसार भी न होगा; जब संसार न होगा तब तो वेद, पुरान, कुरान, तौरेत, जबूर, इंजील प्रमुख शास्त्र भी न होंगे; जब शास्त्र न होंगे तब शास्त्र का उपदेशक भी न होगा, जब शास्त्र का उपदेशक भी नहीं तो ईश्वर भी नहीं; जब ईश्वर ही नहीं तो फिर सर्व शून्यता सिद्ध भई । तब बताओ कि ए कलंक क्योंकर मिटेगा?
पूर्वपक्षः-यह जो जगत है सो बाज़ीगर की बाज़ीवत् है, अरु ईश्वर इस का बाज़ीगर है । सो इस जगत् को रच कर ईश्वर इस खेल से खेलता-क्रीडा करता है, नरक, स्वर्ग, पुण्य और पाप कुछ नहीं।
उत्तरपक्षः-जब ईश्वर ने क्रीडा ही के वास्ते जगत् रचा, तो क्रीडा ही मात्र फल होना चाहिये, परन्तु इस जगत् में तो कुष्ठी, रोगी, शोकी, धनहीन, बलहीन, महादुःखी जीव महाप्रलाप कर रहे हैं, जिनको देखने से दया के वश होकर हमारे रोंगटे-रोम खडे होते हैं। तो क्या फिर ईश्वर को इन दुःखी जीवों को देख कर दया नहीं आती ? जब ईश्वर को दया नहीं तो फिर क्या निर्दयी भी कदे ईश्वर र हो सकता