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जेनतत्त्वादर्श तो सृष्टि से पहिले उपादानादि सामग्री रहित केवल शुद्ध एक ईश्वर सिद्ध होवे । इन दोनों में से जब तक एक सिद्ध न होवे तब तक दूसरा कभी सिद्ध नहीं होता ।तथा इस तुमारे कहने में *चक्रक दूषण भी होता है, जैसे यदा सृष्टि का कर्ता सिद्ध होवे, तदा सर्वशक्तिमान सिद्ध होवे. जब सर्वशक्तिमान सिद्ध होवे तव सृष्टि से पहिले सामग्री रहित केवल शुद्ध एक ईश्वर सिद्ध होवे. जब सृष्टि से पहिले शुद्ध एक ईश्वर सिद्ध होवे तव सृष्टि कर्त्ता सिद्ध होवे-ऐसे प्रगट चक्रक दूषण है। __ पूर्वपक्षः-ईश्वर त प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है, फिर तुम उसको सृष्टिकर्ता क्यों नहीं मानते ?
उत्तरपक्षः-जे कर ईश्वर सृष्टि का कर्ता प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध होवे, तो किसी को भी अमान्य न होवे, और तुमारा हमारा ईश्वर विषयक विवाद कभी नहीं होवे, क्योंकि प्रत्यक्ष में विवाद नहीं होता है । तथा ईश्वर का प्रत्यक्ष देखना भी तुमारे वेदमंत्र से विरुद्ध है। तथा च वेदमंत्र:
* एक अनिष्ट प्रसङ्ग रूप दोष है, जो तीन या अधिक सापेक्ष विषयों मे प्रसक्त होता है अर्थात् पहला दूसरे की, दूसरा तीसरे की और तीसरा पहिले की अपेक्षा रखता है । फिर पहला दूसरे की और दूसरा तोसरे की, इस प्रकार यह दोष चक्रवत् वरावर चलता रहता है।