________________
द्वितीय परिच्छेद
१५
जीवों को ईश्वर ने जो हाथ, पग, प्रमुख वस्तु दी हैं, सो नित्य केवल धर्म करने के कारण दी हैं। पीछे जो जीव उन से, अपनी इच्छा से, पाप कर लेवे तो इस में ईश्वर का क्या दूर है ?
1
उत्तरपक्ष:- हे भव्य ! यह जो तुमने बालक का दृष्टांत दिया सो यथार्थ नहीं, क्योंकि बालक के माता पिता को यह ज्ञान नहीं है, कि यदि हम इस बालक के खेलने वास्ते खिलौना देते हैं, तो हमारा वालक इस खिलौने से अपनी आंख फोड़ लेगा । जेकर बालक के माता पिता को यह ज्ञान होता कि हमारा बालक, इस खिलौने से अपनी आंख फोड़ लेगा तो माता पिता कभी उस के हाथ में खिलौना न देते । जे कर जान करके देवें तो वो माता पिता नहीं किन्तु उस वालक के परम शत्रु हैं । इसी तरें ईश्वर माता पिता तुल्य है अरु तुम, हम उसके बालक हैं । जे कर ईश्वर जानता था कि मैं ने इस को रचा- इसके तांई हाथ, पग, मन, इत्यादि सामग्री दीनी है, इस जीव ने इस सामग्री से बहुत पाप करके नरक जाना है तो फिर ईश्वर ने उस जीव को क्यों रचा ? जे कर कहोगे कि ईश्वर यह बात नहीं जानता था कि मेरी धर्म करने के लिये दी हुई सामग्री से पाप करके यह जीव नरक जावेगा, तो फिर ईश्वर तुमारे कहने ही से अज्ञानी असर्वज्ञ सिद्ध होता है । जे कर कहोगे कि ईश्वर जानता था कि यह जीव मेरी दी हुई सामग्री से पाप करके नरक में जायगा तो