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द्वितीय परिच्छेद
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का त्याग, इत्यादिक अनेक साधन कराय के, पीछे स्वर्ग मोक्ष में पहुंचाना - यह संकट ईश्वर ने व्यर्थ खड़ा करके क्यों जीवों को दुःख दीना । इस बात से तो ऐसा प्रतीत होता है, कि ईश्वर को कुछ भी समझ नहीं ।
अथ तृतीय पक्षांतरः- जे कर कहोगे कि ईश्वर ने पाप संयुक्त ही जीव रचे हैं, तो फिर बिना ही जीवों के करे पाप लगा दिया । इस तरे जब ईश्वर ने ही हमारा सत्यानाश करा, तो हम किस आगे विनति करें कि बिना गुनाह हमको यह ईश्वर पाप लगाता है, तुम इस को मने करो । जो विना ही करे पाप लगा देवे, ऐसे अन्यायी ईश्वर का तो कभी नाम ही न लेना चाहिये । तथा जे कर ईश्वर ने पाप संयुक्त ही सर्व जीव रचे हैं तो राजा, अमात्य -- मंत्री, श्रेष्ठी, सेनापति, धनवानों के घर में उत्पन्न होना, नीरोगकाय, सुन्दर रूप, सुन्दर संहनन, घर में प्रदर, बाहिर यशोकीर्त्ति पंचेन्द्रिय विषय भोग, इत्यादिक सामग्री पाप से कदे भी संभव नहीं होती । इस वास्ते जीवों को केवल पापवान् ईश्वर ने
नहीं रचा ।
अथ चतुर्थ पक्षोत्तर: – जे कर कहोगे कि श्रद्धऽर्द्ध पुण्य पाप वाले जीव ईश्वर ने रचे हैं तो यह पक्ष भी अच्छा नहीं, क्योंकि आधे सुखी, आधे दुःखी ऐसे भी सर्व जीव देखने में नहीं आते।
भथ
पंचम पचोत्तर:- पांचवा पक्ष भी ठीक नहीं