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प्रथम परिच्छेद से दुन्दुभि भुवनव्यापक नादध्वनि करता है, १३. पवन सुखदाई चलता है १४. पक्षी प्रदक्षिणा देते हैं, १५. सुगन्धमय पानी की वर्षा होती है, १६. गोडे प्रमाण पंच वर्ण के फूलों की वर्षा होती है, १७. केश, दाढी, मूंछ नख अवस्थित रहते हैं, १८, चार प्रकार के देवता जघन्य से जघन्य भगवंत के पास एक कोटी होते हैं, १६. पऋतु अनुकूल होती हैं-एतावता उनके स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द ए पांचों बुरे तो लुप्त हो जाते हैं और अच्छे प्रगट हो जाते हैं । ए ओगणीश अतिशय देवता करते हैं। मतान्तर तथा वाचनान्तर में कोई कोई अतिशय अन्य प्रकार से भी हैं । ए पूर्वोक्त चार मूलातिशय और आठ प्रातिहार्य एवं चारां गुणों करी विराजमान अर्हन्त भगवन्त परमेश्वर है । और अठारह दूषण करके रहित है । सो अठारह दूषणों के नाम दो,श्लोक करके लिखते हैं:
अन्तराया दानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः। । हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा चाविरतिस्तथा । रागो द्वेपश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाप्यमी ॥
अभि० चि० का०.१, श्लो०७२-७३] इन दोनों श्लोकों का अर्थः-१. "दान देने में अन्तराय" जो कर्म आत्मा के दान, लाभ, वीर्य, भोग और उपभोग रूप