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प्रथम परिच्छेद चार प्रकार का संघ, अथवा प्रथम गणधर, तिसके जो. करने वाला सो तीर्थङ्कर । १३. "जिनेश्वरः"-रागादिकों के जीतने हारे सो जिन-केवली, तिनका जो ईश्वर सो जिनेश्वर । १४. "स्याद्वादी"-'स्यात्' एह जो अव्यय है सो अनेकान्त का वाचक है. वस्तु को अनेकान्तपने-अनेक स्वरूपे कहने का शील है जिसका सो स्याद्वादी । १५. "अभयदः"-भय सात प्रकार का है:-१. मनुष्यादि को मनुष्यादि स्वजातीय से अर्थात् एक मनुष्य को अन्य मनुष्य सेती जो भय होवे सो "इहलोकभय," २. विजातीय तिर्यञ्च, देवतादिक सेती जो भय होवे सो “परलोकभय," ३. आदानभय-आदान कहिये धन, तिस धन के कारणे चोरादिक सेती जो भय होवे सो "आदानभय",४. वाहिरले निमित्त विना घरादि में बैठे को जो भय होवे सो "अकस्मात भय",५. आजीविकाभय-मैं निर्धन हूँ,
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* अभि० चि०, का० १, इलो० २५ की टोका से उद्धतः
भयं इहपरलोकादानाकस्मादाजीवमरणालाघाभेदेन सप्तधा, एतत् प्रतिपक्षतोऽभय विशिष्टमात्मन. स्वास्थ्यं निःश्रेयसधर्मनिवन्धनभूमिकाभूतं, तत् गुणप्रकर्षादचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् सर्वथा परार्थकारित्वात् ददातीति अभयदः। __भावार्थ-सप्तविध भय से विलक्षण जो आत्मा की विशिष्ट निराकुलता है उसका नाम अभय है । वह मोक्षप्राप्ति के साधनभूत धर्म की भूमिका-आधारशिला है । अनन्तवीर्य आदि गुणों के प्रकर्ष से सर्वशक्तिमान् और परोपकारी होने से उसे जो देता है उसको अभयद कहते हैं ।