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जैनतत्त्वादर्श . द्वितीय परिच्छेद
अब दूसरे परिच्छेद में कुदेव का स्वरूप लिखते हैं
कुदेव उसको कहते हैं जो भगवान तो नहीं कुदेव का स्वरूप परन्तु लोकों ने अपनी बुद्धि से जिसमें
परमेश्वर का आरोप कर लिया है । सो कुदेव का स्वरूप तो उक्त देवस्वरूप से विपर्ययरूप है, सर्व बुद्धिमान प्रापही जान लेंगे। परन्तु जो विस्तार से लिखा ही समझ सकते हैं तिनों के ताई लिखते हैं:
ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादि-रागाधंककलंकिताः । निग्रहानुग्रहपरा-स्तेदेवाः स्युन मुक्तये ॥ नाट्याट्टहाससंगीता-धुपप्लवविसंस्थुलाः। लंभयेयुः पदं शान्तं, प्रपन्नान्प्राणिनः कथम् ॥
[यो० शा०, प्र० २ श्लो०६-७] अस्यार्थः-जिस देव के पास स्त्री होवे तथा जिसकी प्रतिमा के पास स्त्री होवे क्योंकि जैसा पुरुष होता है उसकी मूर्ति भी प्रायः वैसी ही होती है । आज कल सर्व चित्रों में ऐसा ही देखने में आता है । सो मूर्ति द्वारा देव का भी स्वरूप प्रगट हो जाता है । इस प्रकार मूर्ति द्वारा तथा अन्य मतावलंबी पुरुषों के ग्रन्थानुसार समझ लेना । तथा शस्त्र,