________________
द्वितीय परिच्छेद
नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ॥ [ऋग्वेद मं० १० सू० १२८, मंत्र १] + आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत् किञ्चिन्मिपत् । स ईक्षत लोकान्नुसृजा इति ।
८
[ ऐत० उ०, १-१]
इत्यादि अनेक श्रुतियों से सिद्ध होता है, कि सृष्टि से पहिले केवल एक ईश्वर ही था, न जगत् था और न जगत् का कारण था, एक ही ईश्वर शुद्ध स्वरूप था । तथा ईसाई वा मुसलमान मतवाले भी ऐसे ही मानते हैं । इस हेतु से हम प्रथम पक्ष मानते है ।
उत्तर:- हे पूर्वपक्षी ! तुमारा यह कहना ईश्वर को बड़ा कलंकित करता है ।
पूर्वपक्ष:- जगत् के रचने से ईश्वर को क्या कलंक प्राप्त होता है ?
उत्तरपक्षः --- प्रथम तो जगत् का उपादान कारणा नहीं है, इस हेतु से जगत् कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि जिसका उपादान कारण नहीं है, सो कार्य कदापि उत्पन्न नहीं हो सकता जैसे गधे का सींग |
पूर्वपक्ष:- ईश्वर ने अपनी शक्ति, नामांतर कुदरत से
SAAMA
| प्रथम ब्रह्म ही था और कुछ नहीं था उस ने इच्छा की कि सृष्टि को उत्पन्न करू