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द्वितीय परिच्छेद
८१ तुमने तो प्रथम परिच्छेद में कई जगह पर अर्हत भगवंत परमेश्वर लिखा है अरु प्रथम परिच्छेद तो भगवान ही के स्वरूप कथन में समाप्त किया है। यह कैसे सम्भव हो सकता है ? उत्तर:-हे भव्य ! जो कोई कहते हैं कि जैनमतावलम्बी
ईश्वर को नहीं मानते उनका ऐसा कहना जैन धर्म और मिथ्या है । उन्होंने कभी जैन मत का शास्त्र ईश्वर पढ़ा वा सुना न होगा, तथा किसी बुद्धिमान
जैनी का संसर्ग भी न करा होगा । जेकर जैन मत का शास्त्र पढ़ा वा सुना होता तो कभी ऐसा न कहते कि जैनी ईश्वर को नहीं मानते । जेकर जैनी ईश्वर को न मानते होते तो यह जो श्लोक लिखे जाते हैं, वो किस की स्तुति के हैं ?
त्वामव्ययं विभुमचिंत्यमसंख्यमाचं, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति संतः॥
[भक्तामरस्तोत्र-श्लो० २४] अस्यार्थ:-हे जिन ! 'संत:'-सत्पुरुष 'त्वां'-तेरे को 'अव्ययम्'भव्यय 'प्रवदंति' कहते हैं । अव्यय-अपचय को जो न प्राप्त