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जैन तत्त्वादर्श
मनुष्य, तिर्यञ्च को अपनी अपनी भाषापने परिणामती है,
एक योजन में सुनाई देती है ३. प्रभामंडल - मस्तक के पीछे सूर्य के बिम्ब की मानो विडम्बना करता है अपनी शोभा करके, ऐसा मनोहर भामंडल शोभे है, ४. साढ़े पच्चीस योजन प्रमाण चारों पासे उपद्रवरूप ज्वरादि रोग न होवें, ५ वैर - परस्पर विरोध न होवे, ६. ईतिधान्याद्युपद्रवकारी घणे मूषकादि न होवें, ७. मारिमरी का उपद्रव न होवे, ८. अतिवृष्टि - निरन्तर वर्षण न होवे, र. अवृष्टि - वर्षण का प्रभाव न होवे, १०. दुर्भिक्ष न होवे, ११. स्वचक परचक्र का भय न होवे । ए ग्यारां अतिशय * ज्ञानावरणीय आदि चार घाती कर्मों के क्षय होने से उत्पन्न होते हैं । १ आकाश में धर्म-प्रकाशक चक्र होता है, २. आकाश गत चामर, ३. श्राकाश में पादपीठ सहित स्फटिकमय सिहासन होता है, ४. आकाश में तीन छत्र, ५. आकाश में रत्नमय ध्वजा, ६. जब भगवान् चलते हैं, तब पग के हेठ सुवर्णकमल देवता रच देते हैं । ७. समवसरण में रंन, सुवर्ण और रूपामय तीन मनोहर कोट होते हैं, प समवसरण में प्रभु के चार मुख दीखते हैं, . अशोक वृक्ष छाया करता है, १०. कांटे अधो मुख हो जाते हैं, ११. वृक्ष ऐसे नम्रित होते हैं, मानो नमस्कार करते हों, १२. उच्चनाद
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* ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय कर्म आत्मा के विशेष गुणों का घात करते हैं, इस लिए यह घाती कर्म कहे जाते है ।