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ज्ञानार्णवः ।
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धोखा खाते हैं । अतः आचार्य महाराज कहते हैं कि, हम नहिं जानते ये लोग किस कारणसे भूलते हैं । यह प्रवल मोहका माहात्म्य ही है ॥ ४५ ॥ ये चात्र जगतीमध्ये पदार्थाश्चेतनेतराः ।
ते ते मुनिभिरुद्दिष्टाः प्रतिक्षणविनश्वराः ॥ ४६ ॥
अर्थ - इस जगतमें जो जो चेतन और अचेतन पदार्थ हैं, उन्हें सब महर्षियोंने क्षणक्षणमें नष्ट होनेवाले और विनाशीक कहे हैं । यह प्राणी इन्हें नित्यरूप मानता है, यह भ्रम मात्र है ॥ ४६ ॥
अब संक्षेपता से कहकर अनित्य भावनाके कथनको संकुचित करते हैं, -
मालिनी ।
गगननगरकल्पं सङ्गमं वल्लभानाम् जलदपटल तुल्यं यौवनं वा धनं वा ।
सुजनसुतशरीरादीनि विद्यचलानि
क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ॥ ४७ ॥
अर्थ - आचार्य महाराज कहते हैं कि; हे प्राणी ! वल्लभा अर्थात् प्यारी स्त्रियोंका संगम आकाशमें देवोंसे रचे हुए नगरके समान है । अतः तुरन्त विलुप्त हो जाता है और तेरा यौवन वा जलदपलके समान है । सो भी क्षण में नष्ट हो जानेवाला है तथा स्वजनपरिवार के लोग पुत्र शरीरादिक विजुलीके समान चंचल हैं। इस प्रकार इस जगतकी अवस्था अनित्य जानके नित्यताकी बुद्धि मत रख ॥ ४७ ॥
इस भावनाका संक्षेप यह है कि, यह लोक षड्द्रव्यमयी है । इसे द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय, तो छहों द्रव्य अपने २ स्वरूपमें शाधते अर्थात् नित्य विराजते हैं । परन्तु इनकी पर्यायें (अवस्थायें) स्वभाव विभावरूप उत्पन्न होतीं और विनशती रहती हैं अतः ये अनित्य हैं । संसारी जीवोंको द्रव्यके वास्तविक स्वरूपका तो ज्ञान होता नहीं, अतः वे पर्यायहीको वस्तुस्वरूप मानकर उसमें नित्यताकी बुद्धिसे ममत्व वा रागद्वेषादि करते हैं । इस कारण यह उपदेश है कि “पर्याय बुद्धिका एकान्त छोड़कर द्रव्यदृष्टिसे अपने स्वरूपको कथंचित् नित्य जान और उसका ध्यान करके लयको प्राप्त होकर वीतराग विज्ञानदशाको प्राप्त होइये' ।
दोहा । द्रव्यरूपकरि सर्वfथर, परजै थिर है कौन । द्रव्यदृष्टि आपा लखौ, पर्ययनयकरि गौन ॥ १ ॥
इति अनित्यभावना ॥ १ ॥