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ज्ञानार्णवः ।
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खांनि दयाधर्मको छोड़कर दुःखकी शान्तिके लिये हिंसाको भी धर्म कहकर... उपदेश करते हैं । भावार्थ - हिंसामें धर्म करनेवाले विघातके गर्वमें मदोन्मत्त हो रहे हैं. और के विषयलम्पट और कषायी हैं ॥ २८ ॥
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धर्म वुद्ध्याऽधमैः पापं जन्तुघातादिलक्षणम् । क्रियते जीवितस्यार्थे पीयते विषमं विषं ॥ २९ ॥ .
अर्थ — जो पापी धर्मकी बुद्धिसे जीवघातरूपी पापको करते हैं वे अपने जीवनकी इच्छासे हालाहल विषको पीते हैं ॥ २९ ॥
एतत्समय सर्वस्वमेतत्सिद्धान्तजीवितम् ।
यज्जन्तुजातरक्षार्थं भावशुद्ध्या दृढं व्रतम् ॥ ३० ॥
अर्थ - वही तो मतका सर्वत्र है और वही सिद्धान्तका रहस्य है जो जीवोंके समूहकी रक्षाके लिये है | एवम् वही भावशुद्धिपूर्वक दृढ व्रत है ॥ ३० ॥ श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च ।
"अहिंसालक्षणो धर्मः” तद्विपक्षश्च पातकम् ॥ ३१ ॥
अर्थ- - समस्त मतोंके समस्त शास्त्रोंमें यही सुना जाता है कि अहिंसालक्षण तो धर्म है और इसका प्रतिपक्षी हिंसा करनाही पाप है. इस सिद्धान्तसे जो विपरीत बचन हो वह सब विषयाभिलापी जिह्वालंपट जीवोंके दूरहीसे तजने योग्य जानना चाहिये ॥ ३१ ॥ अहिंसैव जगन्माताऽहिंसैवानन्दपद्धतिः ।
अहिंसैव गतिः साध्वी श्रीरहिंसैव शाश्वती ॥ ३२ ॥
अर्थ - अहिंसाही तो जगतकी माता है । क्योंकि समस्त जीवोंकी प्रतिपालना करने - वाली है | अहिंसाही आनन्दकी सन्तति अर्थात् परिपाटी है । अहिंसाही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है । जगतमें जितने उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब इस अहिंसाही में हैं ॥३२॥
अहिंसैव शिवं सूते दत्ते च त्रिदिवश्रियं ।
अहिंसैव हितं कुर्याद्यसनानि निरस्यति ॥ ३३ ॥
अर्थ - यह अहिंसाही मुक्तिको करती है तथा स्वर्गकी लक्ष्मीको देती है और अहिंसाही आत्माका हित करती है तथा समस्त कष्टरूप आपदाओंको नष्ट करती है ॥ ३३ ॥
सप्तद्वीपवतीं धात्रीं कुलाचलसमन्विताम् ।
huruaatree दत्वा दोषं व्यपोहति ॥ ३४ ॥
अर्थ-यदि कुलाचल पर्वतोंके सहित सातद्वीपकी पृथ्वी भी दान करदी जाय तौ भी एक प्राणीको मारनेका पाप दूर नहीं हो सकता है। भावार्थ- समस्त दानोंमें अभय,