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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
चिदचिद्रूपतापन्नं यत्परखमनेकधा । तत्त्याज्यं संयमोदामसीमासंरक्षणोद्यमैः ॥ १७ ॥
अर्थ - परघनके दो भेद हैं. एक चेतन, दूसरा अचेतन. चेतन तो दासी, दास, पुत्र, पौत्र, स्त्री, गौ, महिष तथा घोड़े आदि हैं, और अचेतन धन धान्य, सुवर्णादि हैं । वे अनेक प्रकारके हैं । अतः यदि संयमकी उत्तम मर्यादा ( प्रतिज्ञा ) की रक्षा करनी हो तो उनको अवश्य छोड़ना योग्य है. अर्थात् परद्रव्य कुछभी नहिं लेना चाहिये ॥ १७ ॥ आस्तां परधनादित्सां कर्तुं स्वमेऽपि धीमताम् । तृणमात्रमपि ग्राह्यं नादत्तं दन्तशुद्धये ॥ १८ ॥
अर्थ- बुद्धिमानोंको परधन ग्रहण करनेकी इच्छा करनी तो खममें भी दूर रहे; किन्तु दन्त धोनेको तृण ( दांतोन ) भी विना दिया हुआ परका ग्रहण करना योग्य नहीं है ॥ १८ ॥
आर्या ।
अतुल सुखसिद्धिदेतो, धर्मयशश्चरणरक्षणार्थं च । इह परलोकहितार्थ, कलयत चित्तेऽपि मा चौर्यम् ॥ १९ ॥ अर्थ -- आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे भव्य जीवो ! तुम इस चोरीको उपर्युक्त प्रकारसे निंद्य जानकर अतुल्य सुखकी सिद्धिके लिये; एवम् धर्म, यश और चारित्रकी रक्षा लिये तथा उभय लोकमें हितके लिये चित्तमेंभी इसे मत विचारो । अर्थात् चोरी करना तो दूर रहा, इसको चित्तमेंभी न लाओ ॥ १९ ॥
अब इस अधिकारको पूर्ण करते हुए कहते हैं, -
मालिनी ।
विषयविरतिमूलं संयमोद्दामशाखम् यमदलशमपुष्पं ज्ञानली लाफलाढ्यम् । विबुधजनशकुन्तैः सेवितं धर्मवृक्षं
दहति मुनिरपीह स्तेयतीवानलेन ॥ २० ॥
अर्थ - जिस धर्मरूपी वृक्षकी जड़ विषयोंसे विरक्त होना है. जिसकी संग्रमरूपी बड़ी शाखायें हैं, यम नियमादि पत्र हैं, उपशम-भाव पुष्प हैं. ज्ञानानन्दरूपी फलोंसे भरा है और जो पंडित तथा देवतारूपी पक्षियोंसे सेवित है । ऐसे धर्मरूपी वृक्षको मुनी चोरीरूपी तीन अग्निसे जला देता है तो अन्य साधारणकी तो कथा ही क्या ? इस कारण चोरीका संसर्ग करनाभी महापाप है । इस प्रकार अस्तेयमहात्रतका वर्णन किया गया २० ॥