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रायचन्द्रवैनशास्त्रमालायाम्
हृत्कर्णिकासीनं खरव्यञ्जनवेष्टितम् । स्फीतमत्यन्तदुर्धर्ष देवदैत्येन्द्र पूजितम् ॥ ३३ ॥ प्रक्षरन्मूर्द्धिसंक्रान्तचन्द्रलेखामृत प्लुतम् । महाप्रभावसम्पन्नं कर्मकक्षहुताशनम् ॥ ३४ ॥ महातत्त्वं महावीजं महामन्त्रं महत्पदम् । शरचन्द्रनिभं ध्यानी कुम्भकेन विचिन्तयेत् ॥ ३६ ॥
अर्थ --- ध्यान करनेवाला संयमी हृदयकमलकी कर्णिकामें स्थित और वर व्यञ्जन अक्षरोंसे बेढ़ा हुआ, उज्वल, अत्यन्त दुर्धर्ष, देव और दैत्योंके इन्द्रोंसे पूजित तथा झरते हुए मस्तकमें स्थित चन्द्रमाकी (लेखा) रेखा के अमृतसे आर्द्रित, महाप्रभावसम्पन्न, कर्मरूपी वनको दग्ध करनेके लिये अभिसमान ऐसे इस महातत्त्व, महाबीज, महातंत्र, महापदखरूप तथा शरदके चंद्रमा की समान गौर वर्णके धारक 'ओ' को कुंभक प्राणायामसे चिन्तवन करै ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ अब इसका विशेष विधान कहते हैं, -
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सान्द्रसिंदूरवर्णीभं यदि वा विद्रुमप्रभम् । चिन्त्यमानं जगत्सर्वं क्षोभयत्यभिसंगतम् ॥ ३६ ॥ जाम्बूनदनिभं स्तम्भे विद्वेषे कज्जलत्विषम् । ध्येयं वश्यादिके रक्तं चन्द्राभं कर्मशातने ॥ ३७ ॥ अर्थ - यह प्रणव अक्षर गहरे सिंदूरके वर्णकी समान अथवा मूंगेकी समान चिन्तवन केया हुआ मिलेहुए जगतको क्षोभित करता है ॥ ३६ ॥ तथा इस प्रणवको स्तंभनके योगमें सुवर्णके समान पीला चितवन करे और द्वेषके प्रयोगमें कज्जलकी समान काला तथा वश्यादि प्रयोगमें रक्त (लाल ) वर्ण और कर्मोंके नाश करनेमें चन्द्रमाकी समान तवर्ण ध्यान करे ॥ ३७ ॥
इसप्रकार प्रणव अर्थात् ॐकार मंत्रके ध्यानका विधान कहा । अव पंचपरमेष्ठीके |मस्काररूप मंत्रोंके ध्यानका विधान कहते हैं, -
गुरुपञ्चनमस्कारलक्षणं मन्त्र सूर्जितम् ।
विचिन्तयेज्जगज्जन्तुपवित्रीकरणक्षमम् ॥ ३८ ॥
अर्थ --- पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार करनेरूप है लक्षण जिसका ऐसे महामंत्रको चिनवन करै. क्योंकि, यह नमस्कारात्मक मंत्र जगतके जीवोंको पवित्र करनेमें समर्थ ॥ ३८ ॥
स्फुरद्विमलचन्द्राभे दलाष्टकविभूषिते ।
कचे तत्कर्णिकासीनं मन्त्रं सप्ताक्षरं स्मरेत् ॥ ३९ ॥