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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सर्व साधारण जीवोंके शुक्लध्यान असंभव है इसलिये धHध्यानकी रीति कहते हैं।
अतिक्रम्य शरीरादिसङ्गानात्मन्यवस्थितः।
नैवाक्षमनसोर्योगं करोत्येकाग्रताश्रितः ॥ ११ ॥ अर्थ-धर्म्यध्यान करनेवाला शरीरादिक परिग्रहोंको छोड़, आत्मामें अवस्थित होता हुआ, एकाग्रताको धारण कर, इन्द्रिय और मनका संयोग नहीं करता है अर्थात् इन्द्रियोंसे जो पदार्थोंका ग्रहण होता है उनका मनसे संयोग नहीं करता । मनको केवल खरूपमें ही स्थिर रखता है ।। ११ ॥ अब इस ध्यानका फल लिखते हैं।
असंख्येयमसंख्येयं सदृष्ट्यादिगुणेऽपि च ।
क्षीयते क्षपकस्यैव कर्मजातमनुक्रमात् ॥ १२ ॥ • शमकस्य क्रमात् कर्म शान्तिमायाति पूर्ववत् ।
प्राप्नोति निर्गतातङ्कः स सौख्यं शमलक्षणम् ।। १३॥ अर्थ-इस धर्म्यध्यानमें कर्मोका क्षय करनेवाले क्षपकके सदृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थानसे लेकर, सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त अनुक्रमसे असंख्यात गुणा कर्मका समूह क्षय होता है । और जो कर्मोंका उपशम्म करनेवाला उपशमक है उसके क्रमसे असंख्यात असंख्यात गुणा कर्मका समूह उपशम होता है । इसलिये ऐसा धर्म्यध्यानी आतंक दाहादि दुःखोंसे रहित होता हुआ उपशम भावरूप सुखको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ १३ ॥
धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तर्मुहर्तिकी।
क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्लैव शाश्वती ॥ १४ ॥ अर्थ-इस धर्म्यध्यानकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसका भाव क्षायोपशमिक है और लेश्या सदा शुक्ल ही रहती है। भावार्थ-धर्म्यध्यान अन्तर्मुहूर्त रहता है । धर्म्यध्यानघालेके क्षायोपशमिक भाव और शुक्ल लेश्या होती है ॥ १४ ॥ .
इदमत्यन्त निर्वेदविवेकप्रशमोद्भवम् ।
खात्मानुभवमत्यक्षं योजयत्यङ्गिनां सुखम् ॥१५॥ अर्थ-यह धर्म्यध्यान जीवोंको अत्यन्त निवेद अर्थात् संसार देह भोगादिकोंसे अ. त्यन्त वैराग्य तथा विवेक अर्थात् भेदज्ञान और प्रशम अर्थात् मंदकपाय इनसे उत्पन्न होनेवाले अपने आत्माके ही अनुभवमें आनेवाले और इन्द्रियोंसे अतीत अर्थात् अतीन्द्रिय ऐसे सुखको प्राप्त करता है ।। १५॥