Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 451
________________ ४२७ ज्ञानार्णवः। अब इस धर्म्यध्यानके चिह्न कहते हैं उक्तं च। "अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पम्। ' कान्तिः प्रसाद खरसौम्यता च योगप्रवृत्ते प्रथमं हि चिह्नम् ॥१॥ . अर्थ-अलौल्य अर्थात् विषयोंमें इन्द्रियोंकी लंपटता न होना और मनका चपल न होना, आरोग्य अर्थात् शरीर नीरोग होना, निष्ठुरता न होना, शरीरका गंध शुभ होना, मलमूत्रका अल्प होना, शरीर कान्तिसहित होना अर्थात् शक्तिहीन न होना, चित्तका प्रसन्न होना अर्थात् खेद शोकादिक मलिन भावरूप न होना और खर अर्थात् शब्दोंका उच्चारण सौम्य होना, ये चिह्न योगकी प्रवृत्तिके अर्थात् ध्यान करनेवालेके प्रारम्भदशामें होते हैं। भावार्थ-ऐसे चिह्नवाले पुरुषके ध्यानका प्रारम्भ होता है ॥ १॥" अब इस धर्म्यध्यानका फल कहते हैं। ___ अथावसाने खतनुं विहाय ध्यानेन संन्यस्तसमस्तसङ्गाः। ग्रैवेयकानुत्तरपुण्यवासे सर्वार्थसिद्धौ च भवन्ति भव्याः ॥ १६ ॥ अर्थ-जो भव्य पुरुष इस पर्यायके अन्त समयमें समस्त परिग्रहोंको छोड़कर, धर्म्यध्यानसे अपना शरीर छोड़ते हैं, वे पुरुष पुण्यके स्थानरूप ऐसे अवेयक और अनुचर विमानोंमें तथा सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न होते हैं। भावार्थ-~यदि परिग्रहका त्याग कर, मुनि हो, धर्म्यध्यानसे इस पर्यायको छोड़े तो नव अवेयक, नव अनुत्तर और सवार्थसिद्धिमें / उत्तम देव हो ॥ १६॥ तत्रात्यन्तमहाप्रभावकलितं लावण्यलीलान्वितं स्रग्भूषाम्बरदिव्यलान्छनचितं चन्द्रावदातं वपुः। संप्राप्योन्नतवीयबोधसुभगं कामज्वरार्तिच्युतं सेवन्ते विगतान्तरायमतुलं सौख्यं चिरं खर्गिणः ॥ १७॥ अर्थ-जो जीव धर्म्यध्यानके प्रभावसे वर्गमें उत्पन्न होते हैं, वे वहां अत्यन्त महाप्रभावसहित; सुन्दरता और क्रीडायुक्त तथा माला, भूषण, वस्त्र और दिव्य लक्षणादिसहित; चन्द्रमासदृश शुक्लवर्ण शरीरको पाकर; उन्नत वीर्य और ज्ञानसे सुभग, कामज्वरकी वेदनासे रहित और अन्तरायरहित ऐसे अतुल सुखोंको चिरकाल पर्यन्त भोगते हैं ॥ १७॥ ग्रैवेयकानुत्तरवासभाजां विचारहीनं सुखमत्युदारम् । निरन्तरं पुण्यपरम्पराभिर्विवर्द्धते वार्द्धिरिवेन्दुपादैः ॥ १८ ॥ अर्थ-अवेयक और अनुत्तरादि विमानोंमें रहनेवाले देवोंका सुख कामसेवनसे रहित होता है अर्थात् उनके कामसेवन सर्वथा नहीं है तथापि उनका सुख अत्यन्तः नमी

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