Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 465
________________ ज्ञानार्णवः। ४११ परां शुद्धिं परिप्राप्तो दृष्टोधस्य चात्मनः ॥ १७॥ अयोगी त्यक्तयोगत्वात्केवलोऽत्पादनिवृतः। . . . साधितात्मखभावश्च परमेष्ठी परं प्रभुः॥५८॥ . लघुपश्चाक्षरोचारकलं स्थित्वा ततः परम् ।। स स्वभावाद्जत्यूचं शुद्धात्मा वीतवन्धनः ॥ ५९॥ अर्थ-उस अयोग केवली चौदहवें गुणस्थानमें केवली भगवान् निर्मल, शान्त, निष्कलङ्क, निरामय और जन्ममरणरूप संसारके अनेक दुर्निवार वन्धके कष्टोंसे रहित हैं। इनका आत्मा सिद्ध, सुप्रसिद्ध और निष्पन्न है । तथा ये कर्ममलरहित निरंजन हैं, क्रियारहित हैं, शरीररहित हैं, शुद्ध हैं, निर्विकल्प हैं और अत्यन्त निर्मल हैं। इनके यथाख्यात चारित्र प्रगट हुआ है अर्थात् चारित्रकी पूर्णता हुई है । और अनन्त वीर्य सहित हैं अर्थात् अब अपने खरूपसे कभी च्युत नहीं होते । और आत्माके दर्शन ज्ञानकी उत्कृष्ट शुद्धताको प्राप्त हुए हैं । तथा ये मन वचन कायके योगोंसे रहित हैं इसलिये अयोगी हैं । अत्यन्त निवृत्त हैं इसलिये केवल हैं। इन्होंने अपना आत्मा सिद्ध करलिया है इसलिये साधितात्मा है तथा खभावखरूप हैं, परमेष्ठी हैं और उत्कृष्ट प्रभु हैं । उस चौदहवें गुणस्थानमें इतने समय तक ठहरते हैं कि जितने समयमें लघु पांच अक्षरका उच्चारण हो और फिर कर्मवन्धनसे रहित वे शुद्धात्मा खभावहीसे ऊर्ध्व गमन करते हैं ।। ५७ ॥ ५८ ॥ ५ ॥ इस प्रकार अवतक सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति इन दोनों शुक्लध्यानोंका निरूपण किया । इन दोनों ध्यानोंका फल मोक्ष है इसलिये अब कुछ मोक्षका वर्णन करते हैं। अवरोधविनिर्मुक्तं लोकाग्रं समये प्रभुः। धर्माभावे ततोऽप्यूटुंगमनं नानुमीयते ।। ६० ।। अर्थ-पश्चात् वे भगवान् ऊर्द्ध गमन कर, एक समयमें ही कर्मके अवरोधरहित लोकके अग्रभागविषे विराजमान होते हैं । लोकाप्रभागसे आगे धर्मास्तिकायका अभाव है इसलिये इनका आगे गमन नहीं होता । यही अनुमानद्वारा दिखलाते हैं ।। ६० ॥ . धर्मो गतिखभावोऽयमधर्मः स्थितिलक्षणः। .. . तयोर्योगात्पदार्थानां गतिस्थिती उदाहृते ॥ ६१ ॥ . . अर्थ. जो गतिखभाव है अर्थात् गमन करनेमें हेतु है सो धर्मास्तिकाय है और जो स्थिति लक्षणरूप है अर्थात् पदार्थोंकी स्थितिमें . कारण है सो अधर्मास्तिकाय है । इन दोनोंके निमित्तसे पदार्थोंकी गति और स्थिति कही गई है ॥ ६१॥

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