Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 471
________________ 447 ज्ञानार्णवः / विवुधमुनिमनीषाम्भोधिचन्द्रायमाणं ____ चरतु भुवि विभूत्यै याबद्रीन्द्रचन्द्रौ / / 87 // अर्थ-आचार्य कहते हैं कि हमने इस प्रकार जिनेन्द्र देव सर्वज्ञके सूत्रसे थोड़ासा सार लेकर, अपनी बुद्धिके विभवानुसार यह ध्यानका शास्त्र निर्माण किया है / सो यह शास्त्र विद्वान् मुनियोंकी बुद्धिरूप समुद्रके वढ़ानेके लिये चन्द्रमाके समान होता हुआ जवतक मेरु और चन्द्रमा रहें तबतक इस पृथ्वीमें अपनी विभृतिके लिये सदा प्रवत्ते (यह आचार्यका आशीर्वाद है ) // 87 // ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चित्ते को वेत्ति तत्त्वतः / यज्ज्ञानात्तीर्यते भव्यैर्दुस्तरोऽपि भवार्णवः // 88 // अर्थ-भव्य जीव जिसके ज्ञानसे ही अत्यन्त कठिनतासे पार करने योग्य संसाररूप समुद्रके पार हो जाते हैं ऐसे इस ज्ञानार्णव ग्रन्थका माहात्म्य यथार्थ रीतिसे अपने चित्तमें कौन जानता है. // 88 // इस प्रकार इस शास्त्रकी महिमा निरूपण की / इसका तात्पर्य यह है कि इस शास्त्रका नाम ज्ञानार्णव सार्थक है / ज्ञानको समुद्रकी उपमा है। जो ज्ञानको जानता है वही निर्मल जल है और उसमें जो सर्व पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं वे ही रन हैं / इस प्रकार ज्ञानकी स्वच्छता और एकाग्रता करनेका इसमें वर्णन है इस कारण इसका नाम ज्ञानसमुद्र (ज्ञानार्णव) है / यद्यपि यह ग्रंथ मुनियोंके पढ़ने योग्य है परन्तु इस पंचमकालमें मुनिपनेकी दुर्लभता है इस कारण गृहस्थी भी इसको पड़े सुनै और सुनावै तो उसके यथार्थ श्रद्धान हो जाय तथा ज्ञानकी भावना रहे तो बढ़ा लाभ हो, परंपरासंस्कार पर भवमें चला जाय तो उत्तम गति हो, सुखकी प्राप्ति; इस कारण गृहस्थको पढ़ना सुनना सुनावना योग्य है। __ सबैया 23 सा शानसमुद्र तहां सुखनीर पदारथ पंकतिरत्न विचारो। राग विरोध विमोह कुजंतु मलीन करो तिन दूर बिडारो॥ शक्ति सँभार करो अवगाहन निर्मल होय सुतत्त्व उधारो। ठान क्रिया निज नेम सबै गुन भोजन भोगन मोक्ष पधारो॥ 42 // इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे पिण्डस्थध्यान वर्णनं नाम द्विचत्वारिंशं प्रकरणं समाप्तम् // - -

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