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ज्ञानार्णवः। अनन्तवीर्यप्रथितप्रभावो दण्डं कपाट प्रतरं विधाय।।
से लोकमेनं समयैश्चतुर्भिनिश्शेषमापूरयति क्रमेण ॥ ४४ ॥ अर्थ-अनन्त वीर्यके द्वारा जिनका प्रभाव फैला हुआ है ऐसे वे केवली भगवान् क्रमसे दण्ड, कपाट, प्रतर, इन तीन क्रियाओंको तीन समयमें करके चौथे समयमें इस समस्त लोकको पूरण करते हैं । भावार्थ-आत्माके प्रदेश पहले समयमें दण्डरूप लम्बे, द्वितीय समयमें कपाटरूप चौड़े, तीसरे समयमें प्रतर रूप मोटे होते हैं और चौथे समयमें इसके प्रदेशं समस्त लोकमें भर जाते हैं। इसीको लोकपूरण कहते हैं । ये सब क्रिया चार समयमें होती हैं ॥ १४ ॥
तदा स सर्वगः सार्वः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ।
विश्वव्यापी विभुर्भतो विश्वमूर्तिमहेश्वरः ॥ ४५ ॥ अर्थ-केवली भगवान् जिस समय लोकपूर्ण होते हैं उस समय उनके सर्वगत, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वतोमुख, विश्वव्यापी, विभु, भर्ता, विश्वमूर्ति और महेश्वर ये नाम यथार्थ (सार्थक) होते हैं ॥ ४५॥
लोकपूरणमासाद्य करोति ध्यानवीयतः।
आयुःसमानि कर्माणि भुक्तिमानीय तत्क्षणे ॥४६॥ अर्थ-केवली भगवान् लोकपूरण प्रदेशोंको पाकर, ध्यानके वलसें' वेंदनीय, नाम और गोत्र इन तीनों अधाति कर्मोंकी स्थिति घटाकर, अर्थात् भोगमें लाकर, आयु कर्मके समान स्थिति करते हैं। भावार्थ-यदि वेदनीयक नाम और गोत्र कौकी स्थिति आयुकर्मसे अधिक हो तो लोकपूरण अवस्थामें उनकी स्थिति आयुकर्मकी स्थितिके समान करलेते हैं ॥ ४६॥
ततः क्रमेण तेनैव स पश्चाद्विनिवर्तते।
लोकपूरणतः श्रीमान् चतुर्भिः समयैः पुनः ।। ४७ ॥ अर्थ-श्रीमान् केवली भगवान् पुनः लोकपूरण प्रदेशोंसे उसी क्रमसे चार समयों में लौटकर, स्वस्थ होते हैं । भावार्थ-लोकपूरणसे प्रतर, कपाट, दण्डरूप होकर; चौथे समयमें शरीरके समान आत्मप्रदेशोंको करते हैं ॥ ४७ ॥
काययोगे स्थितिं कृत्वा बारे चिन्त्यचेष्टितः ।
सूक्ष्मीकरोति वाकचित्तयोगयुग्मं स बांदरम् ॥४८॥ अर्थ-जिनकी चेष्टा अचिन्त्य है ऐसे केवली भगवान् उस समय वादर काययोगमें स्थिति करके, बादर वचनयोग और बादर मनोयोगको सूक्ष्म करते हैं ।। ४८॥