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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
परमेष्ठी परं ज्योतिः परिपूर्णः सनातनः संसारसागरोत्तीर्णः कृतकृत्योऽचलस्थितिः ॥ ७४ ॥
परि
अर्थ - तथा परमेष्ठी ( परम पदमें विराजमान ), परं ज्योतिः (ज्ञानप्रकाशः रूप), पूर्ण, सनातन (नित्य), संसाररूपी समुद्रसे उत्तीर्ण अर्थात् संसारसम्बन्धी चेष्टाओं से रहित, कृतकृत्य ( जिनको करना कुछ शेष नहीं है ) अचलस्थिति ( प्रदेशोंकी क्रियाओंसे रहित् ) ऐसे सिद्ध भगवान् हैं ॥ ७४ ॥
संसः सर्वदेवास्ते देवस्त्रैलोक्यमूर्द्धनि ।
नोपमेयं सुखादीनां विद्यते परमेष्ठिनः ॥ ७५ ॥
अर्थ - पुनः सिद्ध भगवान् संतृप्त हैं, तृष्णारहित हैं, तीन लोकके शिखरपर सदा विराजमान हैं अर्थात् गमनरहित हैं । इस संसारमें कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जिसकी उपमा परमेष्ठीके सुखको दी जाय । उनका सुख निरुपमेय है ॥ ७५ ॥ चरस्थिरार्थसम्पूर्ण मृग्यमाणं जगत्रये ।
उपमानोपमेयत्वं मन्ये स्वस्यैव स स्वयम् ॥ ७६ ॥
अर्थ – आचार्य कहते हैं कि यदि चर और स्थिर पदार्थोंसे भरे हुए इन तीनो जगतोंमें उपमेय और उपमान ढूंढा जाय तो मैं ऐसा मानता हूं कि वे स्वयं ही उपमान उपमेय रूप हैं । भावार्थ -- सिद्ध भगवानका उपमान सिद्ध ही हैं और किसीके साथ उनकी उपमा नहीं दी जा सकती ॥ ७६ ॥
यतोऽनन्तगुणानां स्यादनन्तांशोऽपि कस्यचित् ।
ततो न शक्यते कर्तुं तेन साम्यं जगत्रये ॥ ७७ ॥
अर्थ - क्योंकि तीनों जगत में उन सिद्ध परमेष्ठीके अनन्त गुणोंका अनन्तवां अंश भी किसी पदार्थ में नहीं है. इसलिये उनकी समानता किसीके साथ नहीं कर सकते । भावार्थ - इसीलिये उनका उपमान उपमेय भाव अपना अपने ही साथ है || ७७ ||
शक्यते न यथा ज्ञातुं पर्यन्तं व्योमकालयोः ।
तथा खभावजातानां गुणानां परमेष्ठिनः ॥ ७८ ॥
अर्थ - जैसे कोई आकाश और कालका अन्त नहीं जान सकता उसी तरह स्वभाबसे उत्पन्न हुए परमेष्ठीके गुणोंका अन्त भी कोई नहीं जान सकता ॥ ७८ ॥ गगनघनपतङ्गान्द्रचन्द्राचलेन्द्र
क्षितिदहन समीराम्भोधिकल्पद्रुमाणाम् । नित्रयमपि समस्तं चिन्त्यमानं गुणानां परमगुरुगुणौघैर्नोपमानत्वमेति ॥ ७९ ॥