Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 462
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् समूह और जरामरणसे रहित हो जाते हैं । भावार्थ-अरहतपना पाकर, सिद्ध परमेष्ठी होते हैं ॥ ३८॥ अब कुछ विशेष कहते हैं: तस्यैव परमैश्वर्य चरणज्ञानवैभवम् । ज्ञातुं वक्तुमहं मन्ये योगिनामप्यगोचरम् ॥ ३९ ॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि मैं ऐसा मानता हूं कि उन सर्वज्ञ भगवान्का परम ऐश्वर्य, चारित्र और ज्ञानके विभवका जानना और कहना बड़े बड़ें योगियोंके भी अगोचर है ॥ ३९ ॥ मोहेन सह दुर्द्धर्षे हते घातिचतुष्ठये । देवस्य व्यक्तिरूपेण शेषमास्ते चतुष्टयम् ॥ ४०॥ अर्थ-केवली भगवान्के जव मोहनीय कर्मके साथ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन चार दुर्द्ध घातिया कर्मोका नाश हो जाता है तब अवशेष चार अघाति कर्म व्यक्तिरूपसे रहते हैं ॥ ४० ॥ सर्वज्ञः क्षीणकर्मासौ केवलज्ञानभास्करः। अन्तर्मुहूर्तशेषायुस्तृतीयं ध्यानमर्हति ॥ ४१ ॥ अर्थ-कर्मोंसे रहित और केवल ज्ञानरूपी सूर्यसे पदार्थोंको प्रकाश करनेवाले ऐसे वे सर्वज्ञ जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु वाकी रह जाता है तब तीसरे सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति शुक्लध्यानके योग्य होते हैं ॥ ४१ ॥ आर्या । षण्मासायुषि शेषे संवृत्ता ये जिनाः प्रकर्षण । ते यान्ति समुद्धातं शेषा भाज्याः समुद्धाते ॥ ४२ ॥ अर्थ-जो जिनदेव उत्कृष्ट छः महीनेकी आयु अवशेष रहते हुए केवली हुए हैं वे अवश्य ही समुद्धात करते हैं और शेष अर्थात् जो छः महीनेसे अधिक आयु रहते हुए केवली हुए हैं वे समुद्धातमें विकल्प रूप हैं । भावार्थ-उनका कोई नियम नहीं है, समुद्भात करैं और न भी करें ॥ ४२ ॥ यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेष्ठिनः । समुद्धातविधि साक्षात्मागेवारभते तदा ॥ ४३ ॥ अर्थ-जब अरहंत परमेष्ठीके आयु कर्म अन्तर्मुहूर्तका अवशेप रह जाता है और अन्य तीनों कर्मोंकी स्थिति अधिक होती है तब समुद्धातकी विधि साक्षात् प्रथम ही आरम्भ करते हैं ॥ ४३ ॥

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