Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 464
________________ ४४० .. रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् काययोगं ततस्त्यक्त्वा स्थितिमासाद्य तवये । . स सूक्ष्मीकुरुते पश्चात् काययोगं च वादरम् ॥ ४९॥ अर्थ-पुनः वे भगवान् काययोगको छोडकर, वचनयोग और मनोयोगमें स्थिति करके, बादर काययोगको सूक्ष्म करते हैं ॥ ४९॥ काययोगे ततः सूक्ष्मे स्थितिं कृत्वा पुनः क्षणात् । योगव्यं निगृह्णाति सद्यो वाक्चित्तसंज्ञकम् ॥५०॥ अर्थ-तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोगमें स्थिति करके, क्षणमात्रसे उसी समय वचनयोग और मनोयोग दोनोंका निग्रह करते हैं ॥ ५० ॥ सूक्ष्मक्रियं ततो ध्यानं स साक्षात् ध्यातुमर्हति । सूक्ष्मैककाययोगस्थस्तृतीयं यद्धि पठ्यते ॥५१॥ अर्थ-तब यह सूक्ष्मक्रिय ध्यानको साक्षात् ध्यान करने योग्य होता है । और वहांपर सूक्ष्म एक काययोगमें स्थित हुआ उसका ध्यान करता है। यहीं तृतीय सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति ध्यान है ॥ ५१ ॥ हासप्ततिर्विलीयन्ते कर्मप्रकृतयो द्रुतम् । उपान्त्ये देवदेवस्य मुक्तिश्रीप्रतिवन्धकाः॥५२॥ अर्थ-तदनन्तर अयोग गुणस्थानके उपान्त्य अर्थात् अन्त समयके पहले समयमें देवाधिदेवके मुक्तिरूपी लक्ष्मीकी प्रतिबंधक कर्मोकी बहत्तर प्रकृति शीघ्र ही नष्ट होती हैं ॥ ५२ ॥ . तस्मिन्नेव क्षणे साक्षादाविर्भवति निर्मलम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमयोगिपरमेष्ठिनः ॥ ५३॥ अर्थ-भगवान् अयोगि परमेष्ठीके उसी अयोग गुण स्थानके उपान्त्य समयमें साक्षात् निर्मल ऐसा समुच्छिन्नक्रिय नामक चौथा शुक्लध्यान प्रकट होता है ॥ ५३ ॥ विलयं वीतरागस्य पुनर्यान्ति त्रयोदश। चरमे समये सद्यः पर्यन्ते या व्यवस्थिताः ॥ ५४॥ अर्थ-तत्पश्चात् वीतराग अयोगी केवलीके अयोग गुणस्थानके अन्त समयमें शेष रही हुई तेरह कर्मप्रकृति जो कि अबतक लगी हुई थीं तत्काल ही विलय हो जाती हैं । तदासौ निर्मल: शान्तो निष्कलङ्को निरामयः। जन्मजानेकदुर्वारबन्धव्यसनविच्युतः ॥ ५५॥ . सिद्धात्मा सुप्रसिद्धात्मा निष्पन्नात्मा निरञ्जनः। निष्क्रियो निष्कल शुद्धो निर्विकल्पोऽतिनिर्मलः ॥५६॥ आविर्भूतयथाख्यातचरणोऽनन्तवीर्यवान् ।

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