Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 460
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-योगी पुरुषोंके अतिशय निर्मल एकत्ववितर्क अविचार नामक द्वितीय ध्यानरूपी अग्निके प्रगट होते हुए घातिया कर्म क्षणमात्रमें नष्ट होजाते हैं ॥ २८ ॥ evaravana मोहविघ्नस्य वा परम् । स क्षिणोति क्षणादेव शुक्लधूमध्वजार्चिषा ॥ २९ ॥ अर्थ - ध्यानी मुनि इस दूसरे शुक्लध्यानरूपी अग्निकी ज्वालासे दर्शन और ज्ञानके आवरण करनेवाले दर्शनावरण, ज्ञानावरण कर्मको और मोहनीय और अन्तराय कर्मको क्षणमात्रमें ही नष्ट कर देता है । भावार्थ - इस एकत्व शुक्लध्यानसे घातिकर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ॥ २९ ॥ ४३६ इस प्रकार पृथक्त्ववितर्कविचार और एकत्ववितर्कअविचार इन आदिके दोनों शुक्लध्यानका निरूपण किया । इनका संक्षेप भावार्थ यह है कि पहले ध्यानमें द्रव्य पर्यायस्वरूप अर्थसे अर्थान्तरका संक्रमण करता है तथा उस अर्थकी संज्ञारूप शास्त्रके वचनसे वचनान्तरका (दूसरे वचनका ) संक्रमण करता है और तीनों योगोंमेंसे एक योगसे दूसरा, दूसरेसे योगान्तर इस तरह संक्रमण करता है । पलटते पलटते ठहरता भी है, परन्तु उसी ध्यानकी सन्तान चली जाती है । इसलिये उस ध्यान से मोहनीय कर्मका क्षय अथवा उपशम होता जाता है और दूसरे ध्यान में संक्रमण होना बंद हो जाता है । तब शेष रहे हुए घातिया कर्मोंका जड़से नाश करके, केवलज्ञानको प्राप्त होता है । अब केवलज्ञानकी महिमा निरूपण करते हैं और फिर अगले दोनों शुक्लध्यानोंका निरूपण करेंगे । आत्मलाभमथासाद्य शुद्धिं चात्यन्तिकीं पराम् । प्रामोति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम् ॥ ३० ॥ अर्थ - एकत्ववितर्कअविचार ध्यान से घातिकर्मको नाश करके, अपने आत्मलाभको प्राप्त होता है और अत्यन्त उत्कृष्ट शुद्धताको पाकर केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त करता है ॥ ३० ॥ अलब्धपूर्वमासाद्य तदासौ ज्ञानदर्शने । वेत्ति पश्यति निःशेषं लोकालोकं यथास्थितम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-वे ज्ञान और दर्शन दोनों अलब्धपूर्व हैं अर्थात् पहले कभी प्राप्त नहीं हुए थे सो उनको पाकर, उसी समय केवली भगवान समस्त लोक और अलोकको यथावत् देखते और जानते हैं ॥ ३१ ॥ तदा स भगवान् देवः सर्वज्ञः सर्वदोदितः । अनन्तसुखवीर्यादिभूतेः स्यादग्रिमं पदम् ॥ ३२ ॥

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