Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 459
________________ ज्ञानार्णवः । एवं शान्तकषायात्मा कर्मकक्षाशुशुक्षणिः । एकत्वध्यानयोग्यः स्यात्पृथक्त्वेन जिताशयः ॥ २३ ॥ अर्थ - इस प्रकार पृथक्त्व ध्यानसे जिसने अपना चित्त जीत लिया है और जिसके कषाय शान्त होगये हैं और जो कर्मरूप कक्ष अर्थात् तृणसमूह अथवा वनके दग्ध करनेको अनिके समान है; ऐसा महामुनि एकत्व ध्यानके योग्य होता है || २३ | ४३५ पृथक्त्वे तु यदा ध्यानी भवत्यमलमानसः । तदैकत्वस्य योग्यः स्यादाविर्भूतात्मविक्रमः ॥ २४ ॥ अर्थ -- जिस समय इस घ्यानीका चित्त पृथक्त्व ध्यानके द्वारा कषायमलसे रहित होता है तब इस ध्यानीका पराक्रम प्रगट होता है और तभी यह एकत्व ध्यानके योग्य होता है । भावार्थ — एकत्व ध्यान, पृथक्त्व ध्यानपूर्वक ही होता है ॥ २४ ॥ ज्ञेयं प्रक्षीणमोहस्य पूर्वज्ञस्यामितद्युतेः । सवितर्कमिदं ध्यानमेकत्वमतिनिश्चलम् || २५ || अर्थ-जिसका मोहनीयकर्म नष्ट होगया है और जो पूर्वका जाननेवाला है और जिसकी दीप्ति अपरिमित है, उस मुनिके अत्यन्त निश्चल ऐसा यह सवितर्क एकत्वध्यान होता है ॥ २५ ॥ अपृथक्त्वमविचारं सवितर्क च योगिनः । एकत्वमेकयोगस्य जायतेऽत्यन्तनिर्मलम् ॥ २६ ॥ अर्थ - किसी एक योगवाले मुनिके पृथक्त्वरहित, विचाररहित और वितर्कसहित ऐसा यह एकत्व ध्यान अत्यन्त निर्मल होता है || २६ ॥ soi चैकमणुं चैकं पर्यायं चैकमश्रमः । चिन्तयत्येक योगेन यत्रैकत्वं तदुच्यते ॥ २७ ॥ अर्थ - जिस ध्यानमें योगी खेदरहित होकर, एक द्रव्यको, एक अणुको अथवा एक पर्यायको एक योगसे चिन्तवन करता है; उसको एकत्व ध्यान कहते हैं ॥ २७ ॥ उक्तं च । "एक द्रव्यमथाणुं वा पर्यायं चिन्तयेद्यदि । योमैकेन यदक्षीणं तदेकत्वमुदीरितम् ॥ ४ ॥ अर्थ — जो यति समर्थ होता हुआ एक योगसे एक द्रव्य, एक अणु अथवा एक पर्यायको चिन्तवन करै उसे एकत्व ध्यान कहते हैं ॥। ४ ॥" अस्मिन् सुनिर्मलध्यानहुताशे प्रविजृम्भिते । विलीयन्ते क्षणादेव घातिकर्माणि योगिनः ॥ २८ ॥

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