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ज्ञानार्णवः ।
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दूसरा एकत्ववितर्कविचार किसी एक योगसे ही होता है । क्योंकि, इसमें योग पलटते नहीं । योगी जिस योगमें लीन है, वही योग रहता है। तीसरा सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति काययोग वालेके ही होता है । क्योंकि, केवली भगवान्के केवल काययोगकी सूक्ष्मक्रिया ही है । शेष दो योगोंकी क्रिया नहीं है । और चौथा समुच्छिन्नक्रिय अयोगकेवलीके होता है । क्योंकि, अयोगकेवलीके योगोंकी क्रियाका सर्वथा अभाव है ॥ १२ ॥ अब इनका स्पष्ट अर्थ कहते हैं ।
पृथक्त्वेन वितर्कस्य विचारो यत्र विद्यते ।
सवितर्क सविचारं सपृथक्त्वं तदिष्यते ॥ १३ ॥
अर्थ — जिस ध्यानमें पृथक् पृथक् रूपसे वितर्क अर्थात् श्रुतका विचार अर्थात् संक्रमण होता है अर्थात् जिसमें अलग अलग श्रुतज्ञान बदलता रहता है, उसको सवितर्क सविचार सपृथक्त्व ध्यान कहते हैं ॥ १३ ॥
१४ ॥
अविचारो वितर्कस्य यत्रैकत्वेन संस्थितः । सवितर्कमविचारं तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥ अर्थ - जिस ध्यानमें वितर्कका विचार ( संक्रमण ) नहीं होता और जो एक रूपसे ही स्थित हो उसको पंडितजन सवितर्क अविचार रूप एकत्व ध्यान कहते हैं ॥१४ पृथक्त्वं तत्र नानात्वं वितर्कः श्रुतमुच्यते । अर्थव्यञ्जनयोगानां विचारः संक्रमः स्मृतः ॥
१५ ॥
अर्थ-तहां नानात्व अर्थात् अनेकपनेको पृथक्त्व कहते हैं, श्रुतज्ञानको वितर्क कहते हैं और अर्थ, व्यञ्जन और योगोंके संक्रमणका नाम विचार कहा गया है ॥ १५ ॥ अर्थादर्थान्तरापत्तिरर्थसंक्रान्तिरिष्यते ।
ज्ञेया व्यञ्जनसंक्रान्तिर्व्यञ्जनाञ्जने स्थितिः ॥ १६ ॥ स्यादियं योगसंक्रान्तियगाद्योगान्तरे गतिः । विशुद्ध ध्यानसामर्थ्यात्क्षीणमोहस्य योगिनः ॥ १७ ॥
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अर्थ - एक अर्थ (पदार्थ) से दूसरे अर्थकी प्राप्ति होना अर्थसंक्रान्ति है । एक व्यञ्जनसे दूसरे व्यञ्जनमें प्राप्त होकर, स्थिर होना व्यञ्जनसंक्रान्ति है । और एक योगसे दूसरे योगमें गमन करना योगसंक्रान्ति है । इस प्रकार विशुद्ध ध्यानके सामर्थ्य से जिसका मोहनीयकर्म नष्ट होगया है ऐसे योगीके ये होते हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥
उक्तं च ।
"अर्थादर्थं वचः शब्दं योगायोगं समाश्रयेत्
पर्यायादपि पर्यायं द्रव्याणीश्चिन्तयेदणुम् ॥ २ ॥
अर्थ-एक अर्थसे दूसरे अर्थका चिन्तवन करे । एक शब्दसे दूसरे शब्दका और
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